मुस्लिम अतिवादी भीड़ें अब पश्चिम बंगाल में पूरी निडरता के साथ काम कर रही हैं। वे किसी से नहीं डरतीं, न पुलिस से, न BSF (सीमा सुरक्षा बल ) से, भारत की राज्यशक्ति से तो बिलकुल भी नहीं डरतीं। इस्लामवादी भीड़, जिसे तृणमूल कांग्रेस का पूरा समर्थन है, के द्वारा बार-बार हमले और अपमान झेलती पश्चिम बंगाल की पुलिस आज पूरी तरह से हतोत्साहित है । अपनी शक्ति का पाशविक प्रदर्शन करती एक मुस्लिम भीड़ ने ‘दो पुलिस जीपें जला दीं, पुलिसवालों पर हमला किया और बीरभूम के मयूरेश्वर इलाके के पुलिस स्टेशन में तोड़-फोड़ की और उसे घेर लिया, जिससे पुलिस अधिकारीयों को वहां से भागना पड़ा।’ उपरोक्त रिपोर्ट का ये कंपकपा देने वाला अंश है :
“एक अधिकारी ने बाद में कहा कि पुलिस को आला अधिकारियों से बल प्रयोग न करने के ‘कड़े निर्देश’ थे, जिसके कारण कोई प्रतिरोध नहीं हुआ। पिछले दो सालों में बीरभूम में पुलिस को कई बार हमलों का सामना करना पड़ा है, जिससे एक अधिकारी की २०१४ में मृत्यु भी हुई। जिला पुलिस सूत्रों के अनुसार पुलिस बल ने अपना मनोबल खो दिया है जिसका कारण हमलावरों का राजनीतिक समर्थन और किसी कार्यवाही के प्रति प्रतिरोध है “
ये पश्चिम बंगाल राज्य पर पहला हमला नहीं था, ना ही ऐसा लगता है की यह आखिरी हमला होगा। बांग्लादेश के युद्ध अपराधियों के समर्थन में खुले आम रैलियों से लेकर, एक मुस्लिम इमाम पर प्रश्न करने को लेकर गाड़ियां जलाती और महिलाओं का यौन उत्पीडन करती उत्पाती भीड़ तक – ऐसा लगता है कि कलकत्ता और पश्चिम बंगाल इस्लामवादी हिंसा के आदि हो रहे हैं । यह एक नयी वास्तविकता है।
यह “इंडिया फैक्ट्स रिपोर्ट ” पश्चिम बंगाल के अभागे हिन्दुओं पर पिछले कुछ सालों में हुए हमलों का विवरण देती हैं, जिसको रोकने में पुलिस या तो अनिक्षुक है या फिर सीधे-सीधे असहाय है । यह बंगाल के हिन्दुओं पर हो रही नियोजित रूप से हो रही हिंसा और धीमी गति से हो रही पूरी नस्ल को साफ़ करने का कुकृत्य है।
२००२ के दुर्भाग्यपूर्ण गुजरात दंगे, जो ५८ हिन्दू यात्रिओं , जिनमें ज्यादातर महिलायें और बच्चे थे जो साबरमती एक्सप्रेस में यात्रा कर रहे थे, उनकी बर्बरतापूर्वक जलाकर हत्या करने के बाद भड़के, उसकी राष्ट्रीय मीडिया ने बिना विराम के रिपोर्टिंग की। उस समय के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यवाही की मीडिया और न्यायालय ने दो दशकों तक बारीक जांच की – जो कि सही भी है। लेकिन फिर ममता बनर्जी को इसके अंश मात्र की भी जांच और सवालों से क्यों नहीं गुजरना पड़ा ?
इस बात के दस्तावेजी सबूत हैं कि तृणमूल के राज्य सभा सदस्य अहमद हसन इमरान की कैनिंग, दक्षिण २४ परगना जिले में २०१३ में हुए सांप्रदायिक हिंसा में प्रत्यक्ष हाथ था। इस तथ्य को जानने के बाद भी ममता बनर्जी ने अहमद हसन इमरान, जो कि प्रतिबंधित संगठन SIMI के संस्थापकों में से एक है, को राज्य सभा के लिए २०१४ में नामांकित किया। तृणमूल के सदस्यों ने दिन दहाड़े पुलिस अधिकारियों की गोली मारकर हत्या की है और अपने घर बम बनाने वाले आतंकवादियों को भी किराये पर दिया है। प.बंगाल जैसा एक संवेदनशील सीमा से लगा राज्य आज इस्लामवादियों और जिहादियों के लिए उपजाऊ जमीन बन चुका है, जो पड़ोसी बांग्लादेश की सरकार गिराकर और बंगाल के एक भाग को हथियाकर एक वृहद – बांग्लादेश बनाना चाहते हैं। इसके बावजूद ममता बनर्जी के साथ राष्ट्रीय मीडिया ऐसे बर्ताव कर रही है जैसा किसी अन्धप्रेमी माता पिता अपनी बिगडैल संतान के साथ करते हैं-कोई भी वो कठिन सवाल नहीं पूछ रहा है जो पश्चिम बंगाल के हिंदुओं का अस्तित्व बचने के लिए पूछे जाने चाहिए।
कुछ घटनाएं जैसे टुकटुकी मंडल अपहरण या मालदा के दंगे मीडिया की मुख्य धारा में केवल सोशल मीडिया के तीव्र दबाव के कारण ही सामने आये। इसपर भी कुछ समाचार पोर्टलों ने हिन्दुओं की पीड़ा को नकारने का प्रयत्न किया, या फिर उसे तोड़ मरोड़ कर पेश किया जिससे हिंसा के पीछे इस्लामवादियों के हाथ होने की बात दबाई जा सके।
जब सिर्फ स्याही फेंकने जैसी घटनाओं को ‘बढ़ती असहिष्णुता’ की तरह चित्रित किया जा रहा है, तब हमें बार-बार क़ानून व्यवस्था और BSF पर मुस्लिमों की भीड़ के द्वारा किये जाने वाले इन हमलों को क्या समझना चाहिए ? या फिर हमें मुस्लिमों के लिए सहिष्णुता के अलग मापदंड अपनाने चाहिए जिस तरह से उनके लिए अलग दीवानी क़ानून (civil code) है ? ये इस्लामिक असहिष्णुता ऐसे मुस्लिमों पर भी लागू होती है जो ये सोचते हैं कि वे तालिबानी विचारधारा के खिलाफ काम कर रहे हैं। स्वयंभू उदारवादी मुस्लिम जैसे कि जावेद अख्तर, आमिर खान और शाहरुख खान (जो कि पश्चिम बंगाल के ब्रांड एम्बेसडर हैं ) फिर क्यों नहीं अपनी जन सामान्य तक पहुँच और साख का उपयोग पश्चिम बंगाल के बढ़ते इस्लामीकरण की भर्तस्ना करने में करते हैं ?
ऐसे समय में जब पश्चिमी मीडिया भी आखिरकार पश्चिम बंगाल में हो रहे हिंदुओं पर अत्याचार को रिपोर्ट कर रहा है, तब बंगाली हिन्दुओं और उनकी आस्था पर होने वाले बहुआयामी हमलों पर भारत के अन्दर कोई बहस क्यों नहीं हो रही है ? शर्मिला टैगोर जैसी बंगाली हस्ती, जिन्होंने दादरी घटना पर इतने प्रभावी शब्दों में अपनी बात रखी वो हिन्दुओं के इस लगातार जारी दमन और अपने गृह राज्य में क़ानून व्यवस्था के पूर्ण ध्वंस पर क्यों नहीं आवाज़ उठातीं? राष्ट्रपति प्रणव मुख़र्जी क्या इस विषय पर उस तरह बोलेंगे जैसा उन्होंने दादरी के समय सहिष्णुता की वकालत करते समय बोला था? अंत में, हम बंगाल में धरा ३५६ लगाने की चर्चा क्यों नहीं कर रहे जहां क़ानून का राज वास्तविकता में ख़त्म हो गया है ?
(वीरेंद्र सिंह द्वारा हिंदी अनुवाद)