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Friday, March 29, 2024

रानी कर्णावती ने हुमायूँ को भेजा था पत्र, पर हुमायूँ के लिए मजहब था जरूरी!

इन दिनों पूरी दुनिया कबीलाई मानसिकता वाले तालिबानों की हैवानियत से रूबरू हो रही है। वह रोज ही कई ऐसी कहानियों को देख रही है, जो हैरान करने वाली है, जो दुखी करने वाली हैं और जो आपको दर्द के धरातल पर ठहरा देंगी। मगर कुछ ही समय बाद, इन्हीं हमलावरों का एक मानवीय चेहरा दिखाने की कोशिश होने लगेगी, जैसा हमने पिछले दो दिनों में देखा था कि बेहतर तालिबान के नाम से अभियान चला था।

मानवीय संवेदना की कहानियां भी उभर कर आएंगी जिसमें राखी आदि की कहानियाँ होंगी और इन हमलावरों का कथित मानवीय चेहरा जबरन दिखाया जाएगा। ऐसी ही एक कहानी है मुगल बादशाह और रानी कर्णवती की। भारत के इतिहास में रानी पद्मिनी का जौहर प्रसिद्ध है, क्योंकि उसके सामने कोई और झूठी कहानी खड़ी नहीं कर पाए यह इतिहासकार। पर एक और जौहर हुआ था, जिसमें इस्लामी विस्तारवादी मजहबी मानसिकता का क्रूर चेहरा सामने न पाए, इसके लिए एक झूठी कहानी गढ़ी गई!

कहानी शुरू होती है बाबर के भारत पर हमले के साथ। बाबर का सामना राणा सांगा ने किया था और खानवा के युद्ध में बाबर का सामना किया था।

परन्तु उन्हें पीछे हटना पड़ा था और उसके कुछ ही समय उपरान्त 30 जनवरी 1528 को उनका देहांत हो गया था। उसके बाद उनके पुत्र राणा रतन सिंह गद्दी पर बैठे, परन्तु वह वीरगति को प्राप्त हो गए। उसके उपरान्त उनके भाई राणा विक्रमादित्य गद्दी पर बैठे। और कहा जाता है कि चूंकि वह कुशल नहीं था और विलासितापूर्ण जीवन जीता था, तो लोग उससे खुश नहीं थे। इसी को ध्यान में रखते हुए गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर हमले की योजना बनानी शुरू कर दी।

विक्रमादित्य का साथ देने के लिए राजपूत तैयार नहीं थे, परन्तु राणासांगा की पत्नी कर्णावती ने यह समाचार सुनकर शासन अपने हाथों में लिया और सभी सरदारों से अनुरोध किया कि वह साथ आएं, और अपने अपने घरों को बचाने के लिए साथ लड़ें। इस अपील का प्रभाव हुआ और सभी राजपूत साथ आए और उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को बूंदी भेज दिया।

इसके बाद युद्ध हुआ और इस युद्ध में जब राजपूत पराजित होने लगे तो रानी कर्णावती ने दुर्ग की स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया एवं राजपूतों ने केसरिया ओढ़कर दुर्ग और धर्म के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। यह उन तीन जौहरों में से दूसरा जौहर था, जो इस्लामी आक्रान्ताओं के कारण राजपूताना स्त्रियों ने किए थे।

अब इसमें एक कहानी जोड़ी जाती है कि रानी कर्णावती ने हुमायूँ को पत्र भेजा था और राखी भेजी थी, और सहायता माँगी थी। फर्जी इतिहासकारों ने यह कहानी गढ़ी कि हुमायूँ रानी की राखी की लाज रखने के लिए आया, मगर जब तक वह आया तब तक देर हो गयी थी और रानी जौहर कर चुकी थीं।

यह कितना शातिर तरीके से बोला हुआ झूठ है, वह इतिहास की वास्तविक पुस्तकों पर दृष्टि डालने से परिलक्षित हो जाता है।

यह सत्य है कि रानी कर्णावती ने मुग़ल हुमायूँ से सहायता के लिए पत्र भेजा था, परन्तु यह सत्य नहीं है कि हुमायूँ ने उस पत्र को स्वीकार करते हुए सहायता की थी और वहां आया था। एस के बनर्जी, अपनी पुस्तक हुमायूँ बादशाह में हुमायूँ और बहादुरशाह के बीच हुए पत्राचार के विषय में लिखते हैं:

कि बहादुरशाह ने हुमायूँ को लिखा कि

चूंकि हम लोग इंसाफ और ईमान लाने वाले हैं, तो जैसा पैगम्बर ने कहा है कि “अपने भाइयों की मदद करो, फिर वह जुल्म करने वाले हों या फिर पीड़ित।” (पृष्ठ 108)

और उसके बाद उसने लिखा कि “खुदा के करम से जब तक मैं इस वतन का मालिक हूँ, कोई भी राजा मुझे और मेरी सेना को चुनौती नहीं दे सकता है।”

यह सलाह दी जाती है कि आप इस पर काम करें “शैतान आपको राह न भटकाए”

एस के बनर्जी, हुमायूँ बादशाह,पृष्ठ 133

उसके बाद पुर्तगाली फ़रिश्ता के हवाले से लिखते हैं, कि बहादुरशाह ने हुमायूँ को लिखा

“मैं चित्तौड़ का दुश्मन है,

और मैं काफिरों को अपनी सेना से मार रहा हूँ,

जो भी चित्तौड़ की मदद करेगा,

आप देखना, मैं उसे कैसे कैद करूंगा”

एस के बनर्जी, हुमायूँ बादशाह,पृष्ठ 134

मगर मिरत-ए-सिकंदरी, में एक और आयत दी गयी है, जिसे Tazkirah-i-Bukharai में भी दिया गया है। Tazkirah-i-Bukharai के अनुसार यह हुमायूँ ने लिखी थी। वह आयत है

एस के बनर्जी, हुमायूँ बादशाह,पृष्ठ 135

और जिसका अनुवाद है

“मेरे दिल का दर्द अब यह सोच कर खून में बदल गया है, कि हमारे एक होने के बावजूद हम दो है।

मैने कभी भी आपको रोते हुए याद नहीं किया है, मैने कभी सोचा नहीं था कि मैं इतना रोऊँगा,”

यह पत्राचार बहुत बड़ा है, परन्तु चित्तौड़ के साथ ही यह पत्राचार समाप्त होता है। चित्तौड़ एक हिन्दू राज्य था, जिसे पराजित करना जितना जरूरी बहादुरशाह के लिए था, उतना ही जरूरी हुमायूँ के लिए था, क्योंकि काफिरों के राज्य पर हमला करना और नेस्तनाबूत करना ही उनके मजहब की सेवा थी और उस सेवा में कोई मुस्लिम कैसे दीवार बन सकता था।

इस पूरे पत्राचार से यह भी स्पष्ट होता है कि भारत में मुस्लिम शासकों ने मुस्लिम और हिन्दू राज्यों के बीच अंतर रखा था, और मुस्लिम राजा को हिन्दू राज्य के साथ स्थाई शान्ति की अनुमति नहीं थी।

वर्ष 1533 में चित्तौड़ के राणा के साथ संधि के साथ, बहादुर शाह के पास कोई ऐसा कारण नहीं था कि वह राजपूत चित्तौड़ पर हमला करे क्योंकि उसे काफी धन दौलत और कुछ जागीरें चित्तौड़ से इस संधि के कारण मिल चुकी थीं। परन्तु उसे इसलिए हमला करना था क्योंकि वह एक काफिर राज्य था।

बहादुर शाह, महमूद बेगढ़ा का पोता था, और महमूद बेगढा काफिरों से हद से ज्यादा नफरत करता था।

बहादुरशाह ने जब चित्तौड़ पर हमला किया, तो उसे यह डर था कि कहीं हुमायूँ उस पर हमला न कर दे, पर उसके मंत्री सदर खान ने उससे कहा कि ऐसा कुछ नहीं होगा और जब बहादुरशाह एक काफिर पर हमला कर रहे होंगे, तो हुमायूँ बीच में नहीं आएगा क्योंकि यह मुस्लिम परम्परा नहीं है। हाँ, चित्तौड़ पर जीत हासिल करने के बाद वह जरूर हमला कर सकता है।

हुमायूँ ने कर्णावती का पत्र पाकर भी साथ नहीं दिया था और बख्तवार खान के मिरात उल आलम के अनुसार बहादुरशाह ने ही हुमायूँ से कहा था कि वह चित्तौड़ पर किए जा रहे हमले से दूर रहे और हुमायूँ इस पर सहमत हुआ और उसने अपने मुस्लिम होने का प्रमाण देते हुए एक काफिर राज्य की मदद नहीं की।

हुमायूँ जानबूझकर नहीं गया और कर्णावती ने दुर्ग की शेष स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया। यह चित्तौड़ का दूसरा जौहर था, जो इस्लामी आक्रान्ताओं के कारण हुआ था और यह जौहर इसलिए भी हुआ था क्योंकि एक मुस्लिम शासक ने दूसरे मुस्लिम शासक को एक काफ़िर को हराने के पाक काम से नहीं रोका था।

इसमें इस्लामी कट्टरपंथी विस्तारवाद का सत्य सामने आ रहा था, तो उन हजारों हिन्दू स्त्रियों का दर्द दबाने के लिए एक झूठी कहानी बनाई गयी कि रानी कर्णावती ने राखी भेजी और हुमायूँ ने उस राखी का मान रखा, मगर उसे आने में देर हुई।

उसे आने में देर नहीं हुई थी, पहले उसने अपने मुस्लिम भाई को एक काफिर राज्य को नष्ट करने दिया और फिर उस पर हमला किया। और इसे इतिहासकारों ने न जाने कितने झूठ में परोस दिया और उसके बाद साहित्यकारों ने!

इन झूठे लोगों ने हमारे हर त्योहारों को बर्बाद किया है, रानी कर्णावती जिसके कारण आग की लपटों में घिर कर अपना जीवन बलिदान कर बैठी, उसी को कर्णावती के भाई के रूप में स्थापित करने का पाप इतिहासकारों ने किया है, साहित्यकारों ने किया है। इस आत्मघाती सिंड्रोम से हिन्दुओं को बाहर निकलना होगा नहीं तो कल फिर से कोई व्यक्ति इन जाहिल तालिबानियों को उसी प्रकार प्रस्तुत करेगा जैसे आज हुमायूँ को हमारे बच्चों के सामने पेश किया जा रहा है

उस दर्द को अनुभव करके देखिये जो हिन्दुओं के हृदय पर इतने वर्षों से हैं कि जो उनके कातिल हैं, जिन्होनें उन्हें काटा, मारा और इन दुष्ट इतिहासकारों ने उन्हें ही हमारा मसीहा बनाकर पेश किया, और इतना ही नहीं हमारे हिन्दू त्योहारों की पवित्रता को नष्ट करने का प्रयास किया। हिन्दुओं के हर त्यौहार उनकी धरोहर हैं, इसे मजहबी मिलावट मिलाकर नष्ट नहीं होने देना है

और वामपंथी इतिहासकारों से यही कहना है कि “हमारे त्यौहार आपके प्रयोगों और झूठी कहानियों एवं हिन्दुओं में आत्महीनता भरने के लिए नहीं हैं!”


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