पिछले लेख की श्रृंखला से आगे बढ़ते हैं और अब हम आगे बढ़ कर कक्षा 12 में इतिहास की पुस्तक के अध्याय चार ‘विचारक, विश्वास और इमारतें’ में आते हैं। इसे इन्होनें बीसीई (आम युग पूर्व ) 600 से संवत 600 तक लिया है। जब यह कालखंड लिया तो स्पष्ट है कि रामायण, महाभारत या वेदों को बाहर कर दिया। और ऋग्वेद के कुछ श्लोक लेकर बौद्ध ग्रंथों से पाठ आरम्भ किया है। इस अध्याय को मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ा चुकी उमा चक्रवर्ती ने लिखा है।
उमा चक्रवर्ती के विचारों को ‘वायर’ जैसी वेबसाइट पर बहुत आराम से पढ़ा जा सकता है। उनके विचार से भारत में पितृसत्ता ने स्त्रियों को दबाकर रखा है और उनके लिए इतिहास शायद बौद्ध धर्म के उदय के बाद से ही आरम्भ होता है। इनके लेखों से एक नहीं कई बार हिन्दू धर्म और उससे जुड़े रीति रिवाजों और परम्पराओं के प्रति घृणा व्यक्त होती है। उन्होंने Gendering Caste: Through a Feminist Lens नामक एक पुस्तक भी लिखी है और इसमें उन्होंने हिन्दू परिवारों को स्त्री शोषण का केंद्र बताया है।
विषय चार ‘विचारक, विश्वास और इमारतें’ के आरम्भ में ही वह लिखती हैं कि हालांकि हम बौद्ध धर्म का विशेष अध्ययन करेंगे, यह ध्यान देने की बात है कि यह परम्परा अकेली विकसित नहीं हुई। दूसरी कई परम्पराएं थीं, जो एक दूसरे के साथ लगातार वाद-विवाद और संवाद चला रही थीं।
अब यह प्रश्न क्यों नहीं किया जाना चाहिए कि बौद्ध धर्म का ही विशेष अध्ययन क्यों किया जाना चाहिए। वह विचारों का इतिहास जहां बौद्ध धर्म से आरम्भ करती हैं तो वहीं इमारतों का इतिहास साँची के स्तूप से। विचारों में जब हिन्दू धर्म को लिया है तो “यज्ञ और विवाद” शीर्षक के अंतर्गत लिया है। और कुछ श्लोकों का अर्थ दिया गया है। परन्तु सबसे मजेदार बात है कि हिंदी में ऋग्वेद के मन्त्रों को छंद कर दिया है।
गौतम बुद्ध एवं महावीर स्वामी को शिक्षक कहा गया है, जिन्होनें वेदों के प्रभुत्व पर प्रश्न उठाए।
एक प्रश्न यह उठता है कि इतिहास का कार्य मात्र तथ्यों को प्रस्तुत करना होता है, किसी भी वाद का इतिहास में स्थान नहीं होता, या कहें विचारों के आधार पर विश्लेष्ण नहीं होता। क्या इतिहास लेखन का यह सरल सा सिद्धांत इतनी वरिष्ठ लेखिका को नहीं पता होगा? स्पष्ट है ज्ञात ही होगा। परन्तु फिर भी उन्होंने लिखा है कि “हमने देखा ब्राह्मणवाद यह मानता था कि किसी व्यक्ति का अस्तित्व उसकी जाति और लिंग से निर्धारित होता था।”
यह ‘ब्राह्मणवाद’ शब्द इतिहास की पुस्तक में क्या कर रहा है? एवं जाति शब्द तो भारत में था ही नहीं। भारत में वर्ण था, जाति नहीं! जाति शब्द ‘कॉस्ट’ (caste) से आया, जो पूर्णतया विदेशी अवधारणा है।
भारत में वर्ण शब्द था, जिसका अर्थ जाति कतई भी नहीं है।
यद्यपि इस अध्याय में कई तथ्य ऐसे हैं जो आपत्तिजनक हैं, परन्तु सबसे अधिक आपत्तिजनक है तीर्थंकर महावीर स्वामी जी एवं गौतम बुद्ध को शिक्षक तक सीमित कर देना। शिक्षक का अर्थ होता है टीचर, परन्तु वह टीचर नहीं थे। उन्हें भारतीय समाज भगवान मानता है।
इस अध्याय में बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म की शिक्षाएं हैं, परन्तु हिन्दू धर्म में स्त्री को लेकर, वर्ण को लेकर, वर्णाश्रम को लेकर क्या व्यवस्थाएं हैं, यह अध्याय मौन है।
बौद्ध धर्म की शिक्षाओं के बहाने हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने का इस अध्याय में पूरा प्रयास किया गया है। तभी जब आज आप कक्षा ग्यारह या बारह के बच्चे के दिल में हिन्दू धर्म के प्रति अनादर और अनासक्ति का भाव देखते हैं, तो हैरान न हों, यह कहीं न कहीं इन्हीं पाठ्यपुस्तकों के कारण हैं। वह बौद्ध धर्म का आदर करते हैं, जैन धर्म का थोडा बहुत। मगर हिन्दू धर्म का तो कतई नहीं।
भारतीय भूमि पर जन्म लेने वाले और बाहर से आने वाले हर धर्म के प्रति हिन्दू बहुत उदार रहा है।
परन्तु जिन्होनें इतिहास लिखा, उन्होंने इतना बड़ा अन्याय हिन्दू धर्म के प्रति क्यों किया कि उसे ही एक ऐसी दृष्टि से लिखा कि वह इतिहास का सबसे बड़ा खलनायक नजर आने लगा। हालांकि बाद में अंत में आकर मंदिरों के नाम पर हिन्दू धर्म के विषय में लिखा है ‘पौराणिक हिन्दू धर्म’ का उदय।
हालांकि इसमें भी वह अपना हिन्दू विरोधी एजेंडा चलाने से नहीं चूकी हैं और उन्होंने लिखा कि “इन मूर्तियों के अंकन का मतलब समझने के लिए इतिहासकारों को इनसे जुड़ी हुई कहानियों से परिचित होना पड़ता है। कई कहानियां प्रथम सहस्त्राब्दी के मध्य से ब्राह्मणों द्वारा रचित पुराणों में पाई जाती हैं। इनमें बहुत किस्से ऐसे थे जो सैकड़ों वर्ष पहले रचने के बाद सुने-सुनाए जाते रहे थे। इनमें देवी देवताओं की भी कहानियां हैं। सामान्यतया इन्हें संस्कृत श्लोकों में लिखा गया था। इन्हें ऊँची आवाज़ में पढ़ा जाता था, जिसे कोई भी सुन सकता था। महिलाएँ और शूद्र जिन्हें वैदिक साहित्य पढ़ने और सुनने की अनुमति नहीं थी, पुराणों को सुन सकते थे।”
इस अध्याय का अध्ययन करने के उपरान्त हर व्यक्ति बौद्ध धर्म को सबसे प्राचीन धर्म मानने लगेगा और हिन्दू धर्म को सबसे अधिक पिछड़ा। परन्तु एक प्रश्न यहाँ पर उठता है कि आखिर इतिहास की पुस्तक में ‘पितृसत्ता’, और ‘ब्राह्मणवाद’ जैसे शब्दों का प्रयोग क्यों किया गया?
क्यों एक विशेष विचारधारा के अंतर्गत अध्याय का गठन किया गया? क्यों महर्षि वेदव्यास जैसे महर्षियों को सम्मिलित नहीं किया गया? और क्यों विचारकों के इतिहास को आम युग पूर्व छठी शताब्दी से लिया गया? या तो वेदों को सत्य मानते हुए वेदों के भीतर पुरुषों के लिए, स्त्रियों के लिए, एवं समाज के लिए जो दायित्वों की परिभाषा थी, उसकी व्याख्या की जाती? और यदि वह वेदों को कपोल कल्पित मानती हैं तो उसके एक भी अंश को नहीं लेना चाहिए था? परन्तु विकृत करने के लिए जो किया गया, उसके ऊपर कदम उठाए जाने चाहिए थे।
इस अध्याय का अध्ययन करने के बाद भी यदि आप सोचते हैं कि हमारे बच्चे हिन्दू धर्म को महान परम्पराओं का धर्म मानेंगे तो शायद यह सबसे बड़ी गलतफहमी है। क्या ऐसे अध्यायों को पहले ही नहीं हटाया जाना चाहिए था?
क्या आप को यह लेख उपयोगी लगा? हम एक गैर-लाभ (non-profit) संस्था हैं। एक दान करें और हमारी पत्रकारिता के लिए अपना योगदान दें।
हिन्दुपोस्ट अब Telegram पर भी उपलब्ध है. हिन्दू समाज से सम्बंधित श्रेष्ठतम लेखों और समाचार समावेशन के लिए Telegram पर हिन्दुपोस्ट से जुड़ें .