इंडिया कहने के लिए तो इंडिपेंडेंट हुआ, पर उसे भारत का स्वतंत्र होना स्वीकार्य नहीं है। 15 अगस्त 1947 को इंडिया को ब्रिटिशर्स से इंडिपेंडेंस मिली पर भारत स्वतंत्र नहीं हुआ। अंग्रेज गए पर औपनिवेशिक मानसिकता यहीं रह गयी, अंग्रेज गए परन्तु इंडिया दैट इस भारत एक पंक्ति में सारा दर्द दे गए।
अब जैसे ही भारत के नाम पर कोई योजना आरम्भ होती है या भारत का कोई व्यक्ति टूटी फूटी अंग्रेजी बोलता है तो उसे अज्ञानी माना जाता है, जबकि अंग्रेजी मात्र एक औपनिवेशिक भाषा है, जिसे जानकारी प्राप्त करने का माध्यम माना जा सकता है, ज्ञान का पर्याय नहीं। यह बेहद रोचक और विरोधाभास पूर्ण बात है कि जब तक अंग्रेज रहे, इंडिया अंग्रेजों का विरोध करता रहा, मगर अंग्रेजों के जाते ही उसमें वही अभिजात्यता या कुलीनता बोध उत्पन्न हो गया, जिसके खिलाफ उसने कभी मोर्चा खोला था।
अंग्रेजी कथित रूप से सभ्य भाषा बन गयी और हिंदी एवं देशज भाषाएँ एकदम निकृष्ट हो गईं। एक ऐसा कुलीन वर्ग पैदा हुआ, जिसकी दृष्टि में हिंदी या देशज भाषा में शिक्षा पिछड़ी थी और अंग्रेजी बोलना एकमात्र विशेषता। और कथित इंडिपेंडेंस के 70 वर्षों के उपरान्त भी यह इंडिया भारत को हराने पर उतारू है। इसका सबसे नया शिकार है भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया।
जैसे ही मनसुख मंडाविया को स्वास्थ्य मंत्री बनाने की घोषणा हुई, वैसे ही उनके कई पुराने ट्वीट वायरल होने लगे। और यूजर्स उनके उन ट्वीट को लेकर मज़ाक उड़ाने लगे जिसमें उनकी अंग्रेजी टूटी फूटी थी। एक यूज़र ने लिखा कि भारत के भाग्य के विषय में सोच रहा हूँ!
Juz thinking on Fate of our Nation 😳
Remembering Go Corona..! Go Corona..! & Chanting wit plates 🙃#mansukhmandaviya #HealthMinister #CabinetReshuffle #CabinetExpansion pic.twitter.com/5yASBvYwHR
— Naveen N (@iamyournaveen) July 7, 2021
डॉ ज्वाला गुरुनाथ ने ट्वीट किया, कि वह विश्वास नहीं कर सकती हैं कि एक ऐसा व्यक्ति स्वास्थ्य मंत्री है, जिसने एक बार गलत अंग्रेजी लिखी थी:
Can't believe we have health minister #MansukhMandaviya who once said that Mahatma Gandhi is our nation of father .
Plz gimme a break .— Dr Jwala Gurunath (@DrJwalaG) July 8, 2021
कई राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं ने भी मनसुख मंडाविया को ट्रोल किया
He is our Health of Minister (#MansukhEnglish)🤦🙄#दर्जासमजूनघ्या #MansukhMandaviya pic.twitter.com/TZ4vtwPQUM
— Anagha Acharya – अनघा आचार्य (@AnaghaAcharya) July 8, 2021
परन्तु एक प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में अंग्रेजी ही ज्ञान का पर्याय है, कार्य नहीं? या फिर इन लोगों को उस देशज भाषा से समस्या है, जिसमें आत्मनिर्भरता का बोध होता है? क्या जिसे अंग्रेजी नहीं आती उसे कुछ करने का अधिकार नहीं है, इन गुलामों के अनुसार? क्या अंग्रेजी भाषा ही विद्वता का मानक है? यदि ऐसा होता तो कभी भी गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर शिक्षा के लिए मातृभाषा को अनिवार्य न बताते? यदि ऐसा होता तो कभी भी महात्मा गांधी भी स्थानीय भाषा में शिक्षा की वकालत नहीं करते? परन्तु भारत के यह दोनों महापुरुष स्थानीय भाषा अर्थात मातृभाषा में ही शिक्षा देना चाहते थे, ऐसा क्यों? क्या वह पिछड़े थे? नहीं, वह स्वाधीनता बोध विकसित करने की बात करते थे।
जो स्वाधीनता बोध इन मानसिक गुलामों के पास नहीं है। एक बड़ा वर्ग है वह विदेशियों की टूटी फूटी हिंदी को लेकर पागल हो जाता है, तब उसके भीतर यह आत्मसम्मान पैदा नहीं हो पाता कि ऐसी हिंदी न बोलिए। यह गुलाम इंडिया दरअसल खुद को अभी तक गुलामी की उस डोर से बांधे हुए था, जिस डोर को उनके मालिक छोड़कर गए थे, और उस डोर में हिन्दू, हिंदी और हिन्दू आधारित अर्थव्यवस्था से घृणा सम्मिलित थी।
तभी वह अपने मालिकों के इशारे पर हिंदी, हिन्दू और हिन्दू धर्म पर आधारित अर्थव्यवस्था का उपहास उड़ाते हैं। यह पूरा इंडिया कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैले हुए उस विविध भारत से घृणा करता है, जो भारतीय या कहें हिन्दू मूल्यों को आत्मसात किए है और जिसके लिए अंग्रेजी मात्र एक संपर्क भाषा है और कोई नहीं!
तभी वह वर्ग किसी चाय वाले नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़ा होता है, तभी वह वर्ग मनसुख मंडाविया के खिलाफ खड़ा होता है, तभी वह वर्ग पांच सौ वर्षों के उपरान्त प्राप्त हुए राम मन्दिर पर न्याय का विरोध करता है और हिंदी एवं स्थानीय भाषाओं को नीचा ठहराता है। हाँ, उसे वह हिंदी बोलने वाले पसंद हैं, जिनका वह उपहास उड़ा सके जैसे लालू प्रसाद यादव का उच्चारण ! मीडिया ने उनकी हिंदी को मसखरा बनाकर बेचा। परन्तु जो भी व्यक्ति यह स्वप्न देने का प्रयास करेगा कि आत्मनिर्भर भारत के स्वप्न पर आगे बढ़ा जा सकता है, वह इनका शत्रु है, क्योंकि वह उस इंडिया का विरोधी है, जो केवल तन से भारतीय है मन से अभी भी वह उसी शासन काल में हैं, जब वह गोरे अंग्रेजों के सामने “येस सर” कहा करते थे।
वह आयुर्वेद को कोसता है, वह हिन्दू धर्म की परम्पराओं को कोसता है और अपनी पहचान वही बनाए रखना चाहता है, जो मैकाले उसे देकर गया था! “काले अंग्रेज!”
हालांकि कई यूजर्स मनसुख मंडाविया का पक्ष लेते हुए दिखाई दिए और कहा कि उनका कार्य पहले देखा जाए, भाजपा समर्थक प्रीती गांधी ने ट्वीट किया
Born in a middle class farmer family, #MansukhMandaviya has led several social initiatives – from advocating girls’ education to promoting Gandhi's ideology. He has also been honoured by the UNICEF for his contribution to women’s menstrual hygiene. Language never came in the way!
— Priti Gandhi – प्रीति गांधी (@MrsGandhi) July 8, 2021
इस उदाहरण से एक बार फिर स्पष्ट हुआ कि अभी औपनिवेशिक मानसिकता से स्वतंत्रता प्राप्त करनी शेष है
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