कुछ दिन पूर्व पूरे देश ने देखा था कि कैसे प्रोटोकॉल तोड़कर अरविन्द केजरीवाल ने प्रधानमंत्री के साथ हुई बैठक का लाइव टेलीकास्ट कराया था। और कैसे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने हाथ जोड़ जोड़कर यह कहा था कि वह दिल्ली के लिए ऑक्सीजन लाने के लिए हर इंसान के आगे हाथ फ़ैलाने के लिए तैयार है और देखते ही देखते यह वीडियो वायरल हो गया था। यहाँ तक कि मीडिया में भी अरविन्द केजरीवाल सरकार के विज्ञापनों का असर है कि अरविन्द केजरीवाल द्वारा किये गए इस उल्लंघन पर कोई नहीं बोला और न ही किसी ने ऑक्सीजन आपूर्ति की अनियमितताओं पर प्रश्न किया।
पर बिकाऊ मीडिया के मुंह पर आज न्यायालय ने कल कड़ा तमाचा मारा है, हालांकि फटकार तो अरविन्द केजरीवाल को लगी है, पर इसका असर पड़ा है मीडिया पर! पर समस्या यह है कि करोड़ों का विज्ञापन लिए मीडिया ने ऑक्सीजन की समस्या के लिए अभी तक केजरीवाल को दोषी नहीं ठहराया है। जबकि कल दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कहा कि दिल्ली सरकार को शहर में कोविड–19 अस्पतालों में ऑक्सीजन लाने ले जाने की उचित व्यवस्था करनी चाहिए।
न्यायालय में यह स्पष्ट किया गया कि दिल्ली को केंद्र सरकार द्वारा पर्याप्त ऑक्सीजन मिल रही है मगर केंद्र सरकार द्वारा आवंटन के बाद भी ऑक्सीजन की आपूर्ति के लिए दिल्ली सरकार ने क्रायोजेनिक टैंकर्स की व्यवस्था नहीं की है। इस पर न्यायालय ने कठोर टिप्पणी करते हुए कहा कि-
“आप क्या चाहते हैं कि हर चीज़ आपको दरवाजे पर मिले, पर ऐसे काम नहीं होता है। आवंटन के बाद क्या आपने ऑक्सीजन लेने जाने के लिए टैंकर्स के लिए कोई प्रयास किये? हर राज्य अपने अपने टैंकर्स की व्यवस्था कर रहा है, यदि आपके पास अपने टैंकर्स नहीं हैं तो व्यवस्था करें। आपको यह करना ही होगा, केंद्र सरकार के अधिकारियों के साथ सम्पर्क करें। हम यहाँ पर अधिकारियों के बीच बात चीत कराने के लिए नहीं हैं,” बेंच ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा।
हालांकि दिल्ली सरकार की ओर से उपस्थित डॉ. आशीष वर्मा ने कहा कि वह टैंकर खरीदने के लिए हर समभव प्रयास कर रहे हैं, क्योंकि दिल्ली औद्योगिक राज्य नहीं है तो यहाँ पर नाइट्रोजन टैंकर भी नहीं है। मगर न्यायालय पर इस तर्क का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा और उन्होंने फिर से कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा
“यदि 3 दिन पहले आवंटन किया जा चुका था, तो आपने टैंकर्स के लिए अपने विकल्पों पर ध्यान क्यों नहीं दिया। आपके राजनीतिक प्रमुख तो स्वयं एक प्रशासनिक अधिकारी हैं, वह जानते हैं कि आखिर काम कैसे होता है?”
जब कई अस्पतालों ने ऑक्सीजन की कमी की शिकायत की तो दिल्ली सरकार को डांट लगाते हुए एक बार फिर से न्ययालय ने कठोर टिप्पणी की कि “मरीज मर रहे हैं। मिस्टर मेहरा, कृपया अपने काम पर ध्यान दें। आपके अधिकारियों की कमी दिखती है।”
न्यायालय ने और भी कड़ी टिप्पणी करते हुए दिल्ली सरकार के अभिवक्ता राहुल मेहरा, जो आम आदमी पार्टी के सह-संस्थापक भी हैं, से कहा कि “यह हम सभी जानते हैं कि लोगों की जान दांव पर है। केंद्र सरकार अपना काम कर रही है, जो वह कर सकती है पर हमें लगता है कि यह पूरी तरह आपकी प्रशासनिक विफलता है।”
यह बात अत्यंत हैरान करने वाली है कि आज की तारीख में दिल्ली के पास ऑक्सीजन है, परन्तु उसे ले जाने के लिए टैंकर्स नहीं हैं। और सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि किसी भी मीडिया हाउस में अरविन्द केजरीवाल से यह पूछने का साहस नहीं है कि जब आपके यहाँ ऑक्सीजन ले जाने के लिए टैंकर्स ही नहीं हैं तो आप हर दस मिनट के बाद विज्ञापन कैसे दे सकते हैं? और यही नहीं, मीडिया इस बात पर भी केजरीवाल को कठघरे में नहीं खड़ा कर रही कि जब केंद्र ने उसे दिसंबर में पीएम केयर्स फंड से 8 अस्पतालों में ऑक्सीजन प्लांट लगाने का पैसा दिया था, तो अब तक केवल एक ही अस्पताल में प्लांट क्यों लगा है?
क्या किसी भी चैनल ने यह नैतिकता दिखाने का साहस किया कि जब तक दिल्ली की परिस्थितियाँ सुधर नहीं जाती हैं, हम आपके विज्ञापन नहीं दिखाएंगे?
किसी भी मीडिया हाउस ने दिल्ली की प्रशासनिक अक्षमता पर केजरीवाल सरकार से कोई प्रश्न नहीं पूछा है, जबकि भाजपा शासित प्रदेशों में हर छोटी घटना पर प्रशासनिक विफलता का हल्ला मचाकर वह राज्य सरकारों का इस्तीफा मांग लेते हैं। परन्तु केजरीवाल सरकार के हर दस मिनट पर आने वाले विज्ञापनों का असर है कि वह न्यायालय द्वारा दिखाए गए आईने के बाद भी अपना मुंह नहीं खोल रहे हैं।
हालांकि वामपत्रकारों का प्रेम अरविन्द केजरीवाल पर उमड़ उमड़ कर आ रहा है क्योंकि शायद मीडिया और कथित बौद्धिकता के समर्थन के साथ नरेंद्र मोदी सरकार को बीच में ही अपदस्थ कराना चाहते हैं।
यह भी बात बेहद हैरानी की प्रतीत होती है कि बार बार अरविन्द केजरीवाल का झूठ पकड़ा जाता है और बार बार वह नकली माफी मांग लेते हैं और स्पष्टीकरण जारी कर देते हैं। क्या मीडिया उनसे यह प्रश्न करेगा कि वह ऐसा क्यों जानबूझकर करते हैं? क्या न्यायालय द्वारा उठाए गए मुद्दों पर मीडिया उन्हें घेरेगी? शायद नहीं क्योंकि विज्ञापन का बजट ही इतना वजनी है कि हर विरोध के स्वर उसमें दबते ही नहीं है बल्कि नए स्वर भी दबने के लिए तैयार हो जाते हैं।
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