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Saturday, April 20, 2024

दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास पाठ्यक्रम में सकारात्मक परिवर्तन

ऐसा प्रतीत होता है कि जिन क्षणों की प्रतीक्षा भारत का एक बड़ा वर्ग कर रहा था और इस सरकार से अपेक्षा कर रहा था, वह क्षण आ गए हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की (UGC) ओर से दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातक में इतिहास का जो मसौदा पाठ्यक्रम तैयार किया है, वह कम से कम इस बात के प्रति आश्वस्त कर रहा है कि अब हमारे बच्चे सही इतिहास पढ़ पाएंगे। अब हमारे विद्यार्थी उस आयु में अपने भारत के बारे में वह सब कुछ पढ़ पाएंगे जो उन्हें पढ़ना चाहिए और लिखना चाहिए।

वह शायद उस छद्म आज़ादी से बाहर आ पाएंगे जिस आज़ादी में बाँधने का कार्य इतने समय से इतिहास ने किया था। यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि एनसीईआरटी (NCERT) की इतिहास की पुस्तकें पढ़कर बच्चा पहले ही भारत से दूर हो जाता है, उसके सामने इतिहास की पुस्तक में ‘पितृसत्ता, ब्राह्मणवाद’ जैसे शब्द परोस दिए जाते हैं। उसके समक्ष यह तथ्य प्रस्तुत किए जाते हैं कि भारत में वैचारिक परम्परा बौद्ध धर्म के बाद आरम्भ हुई।

ऐसे में स्नातक में इतिहास में जो अभी मसौदा पाठ्यक्रम सामने आया है, उसने यह प्रयास किया है कि उन सभी क्षतियों की भरपाई की जाए जो अब तक पाठ्यक्रमों के माध्यम से हो चुकी हैं। इस पाठ्यक्रम में कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण बातें हैं जिन्हें लेकर वामपंथी पत्रकारों, लेखकों और इतिहासकारों के साथ साथ कांग्रेस में भी खलबली मची हुई है – जैसे आईडिया ऑफ भारत और रामायण और महाभारत के अध्ययन के साथ 1857 को स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम बताना है।

यह पाठ्यक्रम आईडिया ऑफ भारत की बात करता है, अर्थात भारत का विचार, यह इंडिया दैट इज भारत के साथ शुरू नहीं होता है। इसमें इंडिया नहीं, भारत है। भारत का दर्शन है, समय और स्थान (टाइम एंड स्पेस) के विषय में भारतीय अवधारणाएं हैं, और जिस बात पर कांग्रेस और दिल्ली विश्वविद्यालय में श्याम लाल कॉलेज में इतिहास के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर जितेन्द्र मीणा की आपत्ति है, वह है भारतीय साहित्य की प्रतिष्ठा (‘The glory of Indian Literature: Ved, Vedanga, Upanishads, Epics, Jain and Buddhist Literature, Smriti, Puranas etc.’) अर्थात इसमें वेद, वेदांगों, उपनिषदों, जैन और बौद्ध साहित्य, स्मृति एवं पुराण का अध्ययन।

सबसे मजे की बात यह है कि टेलीग्राफ इस खबर को रिपोर्ट करता है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह एक पक्ष बनकर रिपोर्ट लिख रहा है। वह सैंट स्टीफेंस के एक काल्पनिक विद्यार्थी का हवाला देते हुए जो तर्क दे रहा है, वह ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे वह स्वयं ही एक पक्ष है। वह एक विद्यार्थी के हवाले से लिख रहा है कि “इतिहास का अर्थ है निरंतरता और परिवर्तन की प्रक्रियाओं को समझना, इतिहास में कुछ भी शाश्वत नहीं है। किसी भी चीज़ को शाश्वत कहना ऐतिहासिक शोध के सिद्धांतों के खिलाफ है।”

टेलीग्राफ की पीड़ा समझी जा सकती है क्योंकि वह भारत को एक भौगोलिक सीमा में देखता है जबकि यह पाठ्यक्रम आईडिया ऑफ भारत की बात करता है। और जब हम भारत की बात करते हैं तो हम एक भौगोलिक सीमा में बंधे हुए इस भारत की बात नहीं करते, बल्कि हम एक दर्शन की बात करते हैं, जो भारत है। यह दर्शन किसी भी सीमा से बंधा हुआ नहीं है।

परन्तु जैसे ही यह मसौदा पाठ्यक्रम सामने आया है वैसे ही स्पष्ट था ही कि ‘भगवाकरण’ के आरोप आएँगे ही।  दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के सहायक प्रोफ़ेसर जितेन्द्र सिंह मीणा कहते हैं कि सरकार द्वारा लाया गया नया पाठ्यक्रम धार्मिक अध्ययन को प्रोत्साहित करता है, जबकि धर्मनिरपेक्ष पुस्तकों जैसे कौटिल्य रचित अर्थशास्त्र जैसे ग्रन्थों पर बात नहीं करता है। यह बहुत ही स्वाभाविक है कि वह लोग आहत अनुभव कर रहे होंगे, जिन्होनें एक समय तक भारत के अस्तित्व को नकारा है और यह प्रश्न उठता है कि क्या लोग अब भारत के विचार को स्वीकार कर पाएंगे? उत्तर न में प्राप्त होगा।

आज जब सनौली में हुए उत्खनन में रथ के साथ साथ अन्य अत्याधुनिक अस्त्र शस्त्र प्राप्त हुए हैं तो क्या भारतीय शिक्षा प्रणाली, भारतीय वीरता के नियम और सिद्धांत जैसे विषय नहीं पढ़ाए जाने चाहिए? इन सभी से यह प्रश्न नहीं किया जाना चाहिए कि धर्म और दर्शन का भारतीय परिप्रेक्ष्य क्या था, वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा क्या थी, नीति और सुशासन, जनपद और ग्राम स्वराज्य की अवधारणा क्या थी? और अब तक क्यों नहीं पढाया गया, अब जब सम्मिलित किया जा रहा है तो आपत्ति क्या है?

यह लोग आपत्ति नहीं बता पाएंगे। हाँ, आपत्ति अवश्य करेंगे जैसे कांग्रेस अपने मुखपत्र के माध्यम से सामने आ गयी है। कांग्रेस के मुखपत्र नेशनल हेराल्ड में भी Eternity of Synonyms Bharat और धार्मिक साहित्य जैसे वेद, उपनिषद, स्मृति और पुराणों को दिल्ली विश्व’विद्यालय में इतिहास (ऑनर्स) के प्रथम प्रश्नपत्र में सम्मिलित किए जाने पर आपत्ति दर्ज की है

इसके साथ ही इस पाठ्यक्रम में तीसरा प्रश्नपत्र है उसमें “सिन्धु-सरस्वती सभ्यता” पर भी एक टॉपिक है। अब यहाँ पर कांग्रेस की भारत विरोधी मानसिकता साफ़ परिलक्षित होती है जब वह लिखता है कि  सिन्धु नदी तो एक काल्पनिक नदी है तो उसके विषय में बात करना पाठ्यक्रम को साम्प्रदायिक रंग देना है।

और एक बात जो इन सभी को परेशान कर रही है, उद्वेलित कर रही है वह वाकई महत्वपूर्ण है, क्योंकि अब तक तो भारत के इतिहास को केवल एक ही कालखंड में समेट कर रख दिया था और हिन्दुओं को आत्महीनता से भर दिया गया था। जितेन्द्र सिंह मीणा कहते हैं कि जहां पहले मुस्लिम शासन काल के लिए तीन यूनिट प्रदत्त थीं, अब एक है । यही कारण है कि मीणा जी का कहना है कि मुग़ल इतिहास को ‘अनदेखा’ किया गया है।

परन्तु क्या प्रश्न नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या भारत का इतिहास मुस्लिम काल का ही पर्याय है या फिर भारत का इतिहास हज़ारों वर्ष पूर्व का इतिहास है? क्या जो अभी तक मुग़ल काल का महिमामंडन कराया जा रहा था, उसे रोका नहीं जाना चाहिए? और जितेन्द्र सिंह मीणा की पीड़ा एक शब्द को लेकर है, आक्रान्ता या आक्रमण को! इस पाठ्यक्रम में तैमूर और बाबर दोनों के लिए ही आक्रमण करने वाले का प्रयोग किया गया है।

इसमें इरफ़ान हबीब की वह परिभाषा नहीं ली है जिसमें कहा गया है कि मुग़ल केवल आए थे। मुगलों ने आक्रमण किया था, और बाबरनामा पूरा ही इस प्रकार के कत्लेआम और हिन्दुओं के प्रति किए गए अत्याचारों का वर्णन करता है, तो फिर इरफ़ान हबीब जैसों ने ऐसा कैसे लिख दिया कि ‘बाबर हिन्दुस्तान आया’। परन्तु वह क्यों और कैसे आया, इस पर वर्तमान में पढ़ाया जा रहा इतिहास पूर्णतया मौन है, जबकि इसमें ‘आर्य आक्रमण’ के झूठ पर अध्याय अवश्य है।

खैर, इनकी पीड़ा और टेलीग्राफ को यह भी समस्या है कि ‘प्रख्यात’ इतिहासकारों की पुस्तकों को सम्मिलित न करके ‘हिन्दू इतिहास’ में विश्वास करने वाले इतिहासकारों की पुस्तकों को सम्मिलित क्यों किया गया है। जब वह यह लिखते हैं तो यह नहीं बताते कि रोमिला थापर और इरफ़ान हबीब जैसे कथित इतिहासकारों की विचारधारा क्या थी? क्या इरफ़ान हबीब के राजनीतिक विचारों में मार्क्सवाद नहीं दिया गया है? क्या उन्होंने स्वयं को मार्क्सवादी नहीं लिखा? यदि ऐसा है तो क्या यह अपेक्षा की जा सकती है कि उन्होंने सही लिखा होगा?

एक और इकाई है भारत की सांस्कृतिक धरोहर अर्थात Cultural Heritage of India और इसमें रामायण और महाभारत को सम्मिलित किया गया है और यहीं टेलीग्राफ की पीड़ा पूरी तरह झलक पड़ती है। अपनी रिपोर्ट में वह अनजान विद्यार्थी लिखता है कि रामायण और महाभारत को पढ़ाए जाने से आपत्ति नहीं है परन्तु इनका अनावश्यक वीरता प्रदर्शन कड़वाहट में वृद्धि करेगा।

अब आप सोचिये, कि इतने वर्षों तक मुगलों द्वारा भारत पर हिन्दुओं के किए गए कत्ले आम द्वारा उनकी कथित क्रूरता को वीरता के रूप में पढ़ाया जाता रहा, पर आप राम की वीरता का उल्लेख नहीं कर सकते। जबकि यह स्पष्ट है कि रामायण और महाभारत केवल साहित्य नहीं अपितु पूरा ऐतिहासिक प्रलेखन है। उनमें जीवन शैली, वस्त्र, आभूषण आदि का वर्णन है।

रामायण में वास्तु, अस्त्र शस्त्र और स्त्री की सामाजिक स्थिति का भी वर्णन है। उनमें सामाजिक मूल्य हैं, इसके साथ ही विश्वसनीय इतिहास है, यदि रामायण और महाभारत को बच्चे समझ जाएंगे तो वह उस कथित आज़ादी के नारे में विश्वास नहीं करेंगे। इतना ही नहीं इनमें उन वंशों का भी उल्लेख है जिन्हें अब तक इतिहास में सम्मिलित नहीं किया गया था अर्थात चोल, पल्लव, पांड्य आदि। स्पष्ट है कि यदि बच्चे इन्हें पढेंगे तो ओढ़ी गयी महानता से वह आज़ाद होंगे।

सरकार द्वारा उठाए गए इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि देर से ही सही हमारे इतिहास की सभी धाराएं अब अपने वास्तविक स्वरुप को पाने जा रही हैं। सरकार द्वारा इस कदम का स्वागत ही करना चाहिए! परन्तु अब यही देखना है कि कहीं सरकार ‘भगवाकरण’ के आरोपों से डर कर यह कदम वापस न ले। यह कदम अत्यंत ही स्वागत योग्य कदम हैं!


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