कुछ चुपचाप काम करते हैं, और उतनी ही खामोशी से उठकर महफ़िल से चले जाते हैं। और उसके बाद लोगों को लगता है कि क्या हुआ, कोई तो था, जो उनके बीच से उठकर चला गया। वह इतिहास समेटे होते हैं और एक दिन स्वयं ही इतिहास बन जाते हैं। जब वह इतिहास बांचते हैं, तो शहर का भाग्य भी बांचते हैं और फिर एक दिन शहर में समा जाते हैं, कभी न अलग होने के लिए। ऐसे ही इतिहासकार योगेश प्रवीण थे, जिन्हें अवध का चलता फिरता ज्ञानकोष कहा जाता था। अवध अर्थात लखनऊ का कुछ भी तथ्य ऐसा न था, जो उन्हें ज्ञात न हो और वह बिना पूछे ही मुंह जुबानी बता दिया करते थे।
पिछले सप्ताह कोरोना ने लखनऊ से उनके प्रिय पुत्र को छीन लिया। उन्हें अपने शहर से प्रेम था, यही प्रेम उन्हें अपने शहर के इतिहास की ओर ले गया। अपनी पुस्तक आपका लखनऊ में वह अपने शहर के लिए प्रेम लिखते हुए कहते हैं
“लखनऊ मेरे शहर, मेरे शहर, मेरे शहर,
तेरी मुमताज रौनकें निहार लूं तो चलूँ,
शीशए हर्फ़ में तुझको उतार लूं तो चलूँ,
चंद लम्हे सुकून से गुजार लूं तो चलूँ,
ए मोहब्बत तुझे दिल से, पुकार लूं तो चलूँ
लखनऊ मेरे शहर, मेरे शहर!”
वह लखनऊ का इतिहास रामायण काल से बताते हैं। कि मर्यादा पुरषोत्तम राम के अनुज लक्ष्मण जब जानकी को बिठूर के वाल्मीकि आश्रम के निकट छोड़कर अयोध्या की ओर लौट रहे थे, तो गोमती नदी के दाहिने तट पर इसी भूमि पर उनके रथ के पहिये यहीं अचानक से ठहर गये थे। चूंकि उन्होंने अपना उदास मन बहलाने के लिए इस स्थान की शरण ली थी, इसलिए इस स्थान का नाम लक्ष्मणपुर पड़ा था।
योगेश प्रवीण अपनी पुस्तक में स्पष्ट लिखते हैं कि आज लखनऊ की जिस सभ्यता की सराहना दूर दूर तक होती है, वह कोई एक दो दशकों की बात न होकर रामायणकालीन मूल्यों की संवाहक है। उनका मानना था कि इस संस्कृति में राम के अनुज लक्ष्मण का चरित्र है जो पहले आप, पहले आप की बात करते हैं। योगेश प्रवीण ऐसे इतिहासकार थे जिन्होनें लखनऊ को राम के साथ माना था, अर्थात वह राम को सत्य मानने वालों में से एक थे। जिस लखनवी सलाम पर दुनिया फ़िदा है, वह उसका सम्बन्ध लक्ष्मण द्वारा चरणस्पर्श के साथ जोड़ते हैं। वह कहते हैं कि भारतीय परम्परा में बड़ो के चरण छूकर अपने माथे तक ले जाने की प्रथा का ही संस्करण लखनवी सलाम है।
योगेश प्रवीण अपनी पुस्तक में यह जोर देते हैं कि लखनऊ जनपद में बहुत प्राचीन काल से पुरोहितों के संकल्प पाठ में लखनऊ कभी नहीं पढ़ा जाता है, लक्ष्मणपुरी ही बोला जाता है। क्या यही कारण था कि जब योगेश जी गये, तभी कई कथित प्रगतिशील लोगों को पता चला कि ऐसे एक इतिहासकार भी थे? कई नए लेखकों ने यह कहा कि उन्होंने आज तक योगेश जी के विषय में नहीं सुना था। वह योगेश प्रवीण, जिनका नाम बॉलीवुड में भी अनजान नहीं था, वह हिंदी के लेखकों के लिए अनजान थे, गुमनाम थे। कहा जाता है कि यह योगेश प्रवीण ही थे, जिन्होनें उमराव जान की कब्र को खोजा था।
उनके जीवन में यह शहर इतना बसा था कि वह जैसे हर क्षण इसे जीते ही थे। उनकी पुस्तकों में उनका अध्ययन ही नहीं अपितु उनका प्रेम परिलक्षित होता है। वह प्रेम जो रामायण काल से आरम्भ है और आकर लखनऊ को प्रसिद्धि का शहर बना देता है। वह अपने शहर की इस पहचान पर मुग्ध हैं कि चाहे कोई भी समय रहा हो, वह लिखते हैं कि वीरवर लक्ष्मण की इस नगरी को ऋषि मुनियों ने अपना साधना स्थल बनाया। फिर लखनावती को भरों, प्रतिहारों ने अपना देवस्थान बनाकर संवारा और उसके बाद आया शेखजादों का जमाना। नवाबी दौर में तो लखनऊ का सितारा सातवें आसमान पर था, उन नवाबों ने भी इस मिट्टी के इश्क में गिरफ्तार होकर इसी मिट्टी को गले लगा लिया।
योगेश प्रवीण ने गोमती नदी को भी नवयौवना की संज्ञा दी है, जो इठलाती हुई चल रही है। गोमती नदी की यात्रा को भी वह अत्यंत जीवन्तता से बताते हैं। वह लिखते हैं कि नीम के जंगलों से आच्छादित इस सनातन तपोवन (नैमिशारण्य) में गोमती 88 हजार ऋषिश्वरों के पाँव पखारती है। वह गोमती नदी की यात्रा के साथ एक बार पुन: रामायण में पहुँच जाते हैं। वह लिखते हैं कि सुल्तानपुर शहर के बीच गोमती, सीताकुण्ड तीर्थ होकर चुपचाप निकल जाती है। त्रेता युग में भरत जी चरणपादुका लेकर इसी मार्ग से अयोध्या लौटे थे।
सई उतरि गोमती नहाए,
चौथे दिवस अवधपुर आए!
वह ऐसे इतिहासकार थे, जो अपने शहर की बोली पर भी फ़िदा थे। वह अवधी भाषा को ऐसी रसभरी भाषा बताते हैं जिसमें रामचरित मानस जैसे ग्रन्थ की रचना की गयी है। वह शायरों का भी इतिहास उसी उमंग से बताते हैं जितनी उमंग से रामायण से लखनऊ को जोड़ते हैं। वह चिकनकारी का इतिहास बताते हैं। कैसे उसमें कार्य किया जाता है, कितना श्रम है आदि आदि! अत: यह कहा जा सकता है कि योगेश प्रवीण अपने आप में हर सम्मान से ऊपर थे, जब हाल ही में उन्हें पद्मश्री प्राप्त हुआ था, तो जैसे पूरे शहर ने अपने प्रिय इतिहासकार को इतनी देर से प्राप्त सम्मान पर शिकायत करते हुए सम्मान पर हर्ष भी व्यक्त किया था। कहा जाए तो वह स्वयं ही लखनऊ थे। जैसा वह स्वयं कहते हैं:
लखनऊ है तो महज़, गुंबदो मीनार नहीं
सिर्फ़ एक शहर नहीं, कूच और बाज़ार नहीं
इस के आंचल में मुहब्बत के फूल खिलते हैं
इस की गलियों में फ़रिश्तों के पते मिलते हैं
योगेश प्रवीण जैसे व्यक्तित्व कहीं जाते नहीं हैं, वह रहते हैं अपने प्रिय शहर में उसकी आत्मा बनकर
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