कैसेट किंग के नाम से मशहूर गुलशन कुमार की हत्या के विषय में आज मुम्बई उच्च न्यायालय का निर्णय आया और इस निर्णय में पूर्व के निर्णय को ही बरकरार रखा है। इसमें रऊफ मर्चेंट की सजा को वही रखा है तो वहीं अब्दुल राशिद दौड़ मर्चेंट को भी उम्र कैद की सजा दी है, निर्माता रमेश तौरानी को बरी किए जाने को भी बरकरार रखा है।
Conviction of Rauf Merchant is upheld by Bombay High Court in Gulshan Kumar murder case.
Ramesh Taurani's acquittal upheld, Maharashtra govt's appeal against Taurani dismissed.
— ANI (@ANI) July 1, 2021
कैसेट किंग गुलशन कुमार की हत्या तब हुई थी जब वह अपने घर से थोड़ी दूर बने हुए मंदिर में पूजा करने के लिए गए थे। तब उन पर गोलियों की बरसात हो गयी थी। उन पर 16 राउंड फायरिंग हुई थी। इस जघन्य हत्याकांड ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। 12 अगस्त 1997 को अबू सलेम की शूटर ने गोलियां चला दी थीं। हालांकि कहने को यह हत्या थी, परन्तु यह हत्या फिल्म उद्योग में एक बहुत बड़े एवं विनाशकारी परिवर्तन की ओर जैसे संकेत कर रही थी। जूस की दुकान से कैसेट किंग बने गुलशन कुमार की लोकप्रियता से एवं सामजिक सक्रियता से वह अंडरवर्ल्ड के निशाने पर आ गए थे।
उन्होंने भक्ति गानों को वह ऊंचाई प्रदान की, जहाँ पर कभी भी उस फिल्म उद्योग ने सोचा नहीं था, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भगवान के प्रति अपमानजनक टिप्पणी करने को अपना अधिकार मानता था। गुलशन कुमार केवल भक्ति संगीत ही नहीं बल्कि फिल्म निर्माण में भी नित नई ऊंचाइयों को छू रहे थे। उन्होंने नए नए गायकों को फिल्म उद्योग के साथ जोड़ा। सोनू निगम, अनुराधा पौडवाल जैसे गायकों ने फिल्म उद्योग में कदम रखा और सुरों के संसार में अपना और गुलशन कुमार का नाम किया।
फिर आई 1989 में फिल्म, ‘लाल दुपट्टा मलमल का” और जिसके संगीत ने धूम मचा दी थी, और उसके बाद आई ‘आशिकी’ ने तो जैसे सफलता के सारे रिकार्ड्स तोड़ दिए थे। ‘आशिकी’ के गाने आज तक लोगों की जुबां पर चढ़े हुए हैं।
परन्तु ऐसा क्या हुआ था, जो गुलशन कुमार की ऐसी जघन्य हत्या हुई और वह भी मंदिर में पूजा के लिए जाते समय? क्या यह कोई सन्देश था, क्या यह कोई प्रतीक था? यह सब प्रश्न बार बार उठे, क्योंकि गुलशन कुमार को पहले से ही धमकियां मिल रही थीं। कहा जाता है कि अबू सलेम ने उनसे हर महीने 5 लाख रूपए देने के लिए कहा था, तो उन्होंने इस धमकी के सामने झुकने से इंकार कर दिया था। जिसके कारण उनकी हत्या कर दी गयी थी।
और उस दिन जब वह पूजा करने के लिए जा रहे थे, तो प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार गोली चलाने वाले ने कहा “बहुत पूजा कर ली, अब ऊपर जाकर पूजा करना” और यह कहते ही उसने गोली चला दी थी। गुलशन कुमार स्वयं भी धार्मिक व्यक्ति थे, और उनके द्वारा वैष्णो देवी मंदिर में एक भंडारा चलता है और वह अभी तक चल रहा है। यहाँ तक कि उनके पुत्र भूषण ने वैष्णो देवी मंदिर में ही विवाह किया था। अनुराधा पौडवाल की आवाज़ में शिव अमृतवाणी आज भी कानों में मिसरी जैसे घोल देती है। आज भी गुलशन कुमार के भक्ति गीत मन में भक्ति का संचार कर देते हैं। कौन भूल सकता है “शिव मेरे मंदिर, शिव मेरी पूजा” जैसे भजन!
परन्तु इस हत्या में भी एक पैटर्न था, जैसे इतिहास में देखा कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई गईं। अयोध्या, काशी और मथुरा में इतने स्थान थे, कहीं भी मस्जिद बनवाई जा सकती थी, परन्तु मंदिरों को ही तोड़कर मस्जिद क्यों बनवाई गयी? वह एक प्रतीक था, कि जिन्हें तुम अपना रक्षक मानते हो, जो तुम्हारे देवता हैं, हम उन्हें ही तोड़ देंगे, नहीं तो इतनी भूमि थी, कहीं भी मस्जिद बनाई जा सकती थी। जैसे ही देवता का मंदिर गिरता था, वैसे ही जनता का मनोबल टूट जाता था।
ऐसा ही गुलशन कुमार की हत्या को तब कराया जाना जब वह पूजा के लिए जा रहे थे, वह भी प्रतीक के माध्यम से हिन्दुओं के मनोबल पर प्रहार करना था। क्योंकि गुलशन कुमार खुलकर अपने धर्म का पालन करते थे और भक्ति संगीत के माध्यम से भक्ति का संचार भी कर रहे थे। एवं वैष्णो देवी मंदिर में भंडारा भी चलवा रहे थे। अर्थात वह धर्म को धारण किए हुए थे। ऐसे में हिन्दू विरोधी वाम विचारों वाले फिल्म उद्योग में हलचल मचना तय ही था।
उन दिनों वैसे ही अंडरवर्ल्ड का बोलबाला था, और वह कतई भी नहीं चाहता था कि हिन्दुओं के देवी देवताओं के लिए सकारात्मक एवं गौरवपूर्ण रचा जाए। कहीं न कहीं मजहबी कारण भी इस हत्या के लिए जिम्मेदार थे। यही कारण है कि गुलशन कुमार की इस हत्या के बाद के कुछ वर्षों के उपरान्त ही शिव, दुर्गा जैसे शब्दों का आदरपूर्ण प्रयोग कम होता गया। अली, मौला जैसे शब्दों से गाने भर गए, और राधा को सेक्सी कहा जाने लगा। रासलीला जो कृष्ण एवं गोपियों के आध्यात्मिक मिलन का पर्याय थी उसे अश्लीलता का पर्याय बता दिया गया।
गुलशन कुमार को मारकर जैसे यह सन्देश दिया कि जो भी हिन्दू भगवानों के लिए भक्तिपूर्वक गाने, फ़िल्में बनाएगा तो उसका परिणाम भी यही होगा जो गुलशन कुमार का हुआ। और उसके बाद ही अचानक से खान लॉबी का प्रभाव बढ़ने लगा और तीनों मुख्य खानों के साथ साथ, कई और खान छा गए और एकतरफा सेक्युलरता से भरी फिल्मों ने हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने में कोई कसार नहीं छोड़ी।
आज जब यह निर्णय आया है, तब फिल्म उद्योग की इस कुटिलता का उत्तर दर्शक खुलकर दे रहे हैं और यह स्पष्ट कर रहे हैं कि अब वह इस षड्यंत्र को समझ रहे हैं।
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