कॉलेज छोड़ने के बाद मेरी स्थिति काफी गंभीर थी। मैं अब एक शादीशुदा आदमी और एक बेटे का पिता भी था।
भरण-पोषण करने के लिए एक परिवार था जिसमें गांव में रह रहे मेरे माता-पिता भी शामिल थे। लेकिन मेरी जेब में एक पैसा भी नहीं था। मैंने केंद्रीय सचिवालय में मिली एक क्लर्क की एकमात्र नौकरी,ठीक पैंसठ दिन बाद छोड़ दी,क्योंकि मुझे ब्रिटिश साम्राज्यवादी मशीन में एक चक्रदन्त होने में शर्मिंदगी महसूस होती थी।
मेरी सर्वोच्च आकांक्षा थी किसी कॉलेज में लेक्चरर बनने की। लेकिन प्रत्येक साक्षात्कार जिसके लिए मुझे बुलाया जाता , नियोक्ताओं द्वारा ये कह कर समाप्त कर दिया जाता कि मुझे शिक्षण का कोई पिछला अनुभव नहीं था।
इसी अभाग्य के बीच मेरी मुलाकात राम स्वरूप से हुई।
वह उसी कॉलेज में एक साल से मेरे वरिष्ठ थे, लेकिन मैंने अपने कॉलेज के दिनों में उन्हें कभी नहीं देखा था और न ही उनसे मिला था। मैंने सुना था कि कॉलेज की संसद में कुछ छात्र नेताओं द्वारा दिए गए कुछ बेहतरीन भाषण रामस्वरूप द्वारा लिखे गए थे। और यह भी कि मेरे एक सहपाठी ने ,जिसने अपने नाम से कॉलेज पत्रिका में कुछ अच्छी कविताओं का योगदान दिया था, वह वास्तव में रामस्वरूप द्वारा रचित थे।
सो मैं उनके नाम से परिचित था लेकिन चेहरे से नहीं। मैं भी थोड़ा उत्सुक था ये जानने के लिये कि अपनी कविताओं के प्रचार-प्रसार के लिए उन्हें दूसरे व्यक्ति की पहचान के पीछे क्यों छिपना पड़ा?
इस बीच, मैं अपनी बौद्धिक धारणाओं में, कॉलेज के दिनों के अपने दार्शनिक मित्र से दूर जा रहा था, जो कॉलेज से उत्तीर्ण हो चुका था पर एम.ए की परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के बावजूद मेरी तरह बेरोजगार था।
उन्हें मार्क्सवाद में कोई सार्थक संदेश दिखाई नहीं दे रहा था। दार्शनिक रूप से,प्रणाली के समर्थक से सर्वश्रेष्ठ को बाहर लाने के लिए ,उनकी विपरीत पक्ष के लिए बहस करने की एक बुरी आदत थी। हालाँकि वह राम स्वरूप, जिससे वह परिचित थे, की बहुत प्रशंसा करते थे।उन्होंने एक दिन रामस्वरूप को सबसे अवैयक्तिक व्यक्ति बताया, जिनसे वे मिले थे।
एक दिन एक दोस्त ने मुझे एक बैठक के लिए आमंत्रित किया,जिसकी अध्यक्षता हमारे समूह के रामस्वरूप को करनी थी। मैं नियत स्थान पर गया और उनसे पहली बार आमने-सामने मिला। मैंने उन्हें हास्यरस से भरा हुआ पाया।
उनका व्यक्तित्व एक प्रफुल्लित प्यार से परिपूर्ण था जिसका मैं तुरंत दीवाना हो गया। हम पहले ही दिन दोस्त बन गए। उसके बाद, हम लगभग हर दिन चांदनी चौक के एक रेस्तरां में या लाल किले की दीवारों के नीचे बगीचे में मिलने लगे। हमारी चर्चा का विषय होता एक अनूठा सिद्धांत जो स्वयं रामस्वरूप ने विकसित किया था। पहले तो मुझे लगा कि उन्होंने इसे जादू से अपनी टोपी से निकाला है।
रामस्वरूप ने मानव इतिहास में वर्ग संघर्ष की भूमिका में मार्क्सवाद की वैधता की स्वीकृती दी । लेकिन उन्होंने एक और बुनियादी सवाल उठाया, जिसे उनसे मिलने से पहले मैंने कभी नहीं सुना था या पढ़ा था,कि किसी और ने ऐसा सवाल उठाया हो।
पहली बार में वर्गों का गठन कैसे हुआ? यह उनका सवाल था।उस समय मैं नहीं जानता था कि मार्क्स के पास इस प्रश्न का उत्तर है।
मार्क्स के अनुसार, वर्ग, आदिम साम्यवादी समाज में गठित हुए, जब उत्पादन के साधन जमा हो गए और कुछ लोगों ने उन्हें विनियोजित कर लिया जबकि दूसरों को इससे क्षति पहुँची । इन साधनों के मालिक धनवान बन गए और शोषित वर्ग पर पर हुकूमत करने लगे।
लेकिन अगर मुझे यह जवाब पता भी होता, तो भी इस जवाब से रामस्वरूप संतुष्ट नहीं होते। उनकी छानबीन/जाँच मार्क्स से ज्यादा गहरी थी। अमीरों ने उत्पादन के साधनों का विनियोजन कैसे किया?
इसलिए मैंने इंतज़ार किया कि रामस्वरूप अपने प्रश्नों का उत्तर स्वयं दें।उन्होंने मुझे समझाया कि वर्ग वास्तव में राष्ट्रीय संघर्षों का परिणाम थे जिसमें लोगों के एक समूह ने जीत हासिल की और खुद को दूसरे समूह पर थोप दिया और उत्पादन के साधनों का दुरुपयोग किया। उनके सोचने के तरीके में वर्ग संघर्षों पर राष्ट्रीय संघर्षों की प्रधानता थी।माध्यमिक संघर्षों को प्राथमिक संघर्षों के समाधान को अस्पष्ट या बाधित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। भारतीय समाज में जो भी वर्ग संघर्ष मौजूद थे,उन पर ब्रिटेन के साथ हमारे राष्ट्रीय संघर्ष की प्रधानता थी। यह वास्तव में मार्क्स से आगे निकलने के लिए एक मार्क्सवादी अवधारणा का ही बहुत ही कुशल उपयोग था।मैं चुनौती को पूरा नहीं कर सका या तर्क को हरा नहीं सका।
लेकिन जब रामस्वरूप ने मुझसे अपनी बात साबित करने के लिए ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध कराने का अनुरोध किया तब मैंने इसका विरोध किया। वह मेरी तरह इतिहास के छात्र नहीं थे। मेरे सोचने के तरीके में पहले तथ्य आते,और निष्कर्ष ,किसी भी समय जो भी तथ्य उपलब्ध थे,उनके तार्किक अनुमान थे।
लेकिन यहाँ एक व्यक्ति था जो इस प्रक्रिया को उलटने के लिए निकला था। मैंने इसके वितर्क को राम स्वरूप को इंगित किया। वह मुस्कुराये और कहा कि उनके लिए निष्कर्ष पहले आता है और तथ्य उसका अनुसरण करते हैं। मैंने उनसे कहा कि उनके सोचने के तरीके में फासीवाद की बू आ रही है।
वह कुछ और मुस्कुराये और उनके तेज बौद्धिक चेहरे पर “तो क्या” की भावाभिव्यक्ति से मेरी ओर देखा।उस गालीनुमा शब्द का, जिसने उन दिनों कई बुद्धिजीवियों को झकझोर कर रख दिया था, उनके लिए कोई दंश नहीं था। वास्तव में, कभी-कभी मुझे संदेह होता था कि वह फासीवाद के समर्थक थे।
इस संदेह का मेरे लिए आधार था आरएसएस के प्रति उनकी अडिग सहानुभूति, जिसे मैं अब तक एक फासीवादी संगठन के रूप में मानता आया था।ऐसा नहीं है कि मैं आरएसएस के बारे में कुछ जानता था। मैं केवल वही दोहरा रहा था जो मैंने अपने पहले के बौद्धिक हलकों में सुना था। लेकिन राम स्वरूप आरएसएस के कुछ कार्यकर्ताओं को जानते थे।उन्होंने मुझे बताया कि उनमें से एक कनॉट प्लेस में एक प्रसिद्ध दूध की दुकान का प्रबंधक था।उसने बड़ी संख्या में उसकी दुकान में आने वाले ग्राहकों को दूध की बोतलें परोसने के लिए संस्थान द्वारा नियोजित सफाईकर्मी को अनुमति दे दी।
एक दिन एक मुस्लिम सज्जन ने एक सफाईकर्मी के, कुलीन वर्ग को दी जाने वाली दूध की बोतलों को छूने की अनुमति देने पर आपत्ति जताई। प्रबंधक ने उत्तर दिया कि वह एक हिंदू था और उनके धर्म में किसी को अछूत नहीं माना जाता। मैं उनकी कहानी से काफी प्रभावित हुआ।मैं चाहता था कि सभी हिंदू ऐसा ही बयान दें। लेकिन मैंने आरएसएस के बारे में अपनी राय नहीं बदली।
मैं सोचता हूँ कि अगर मैं दिल्ली में ही रहता और राम स्वरूप से नियमित रूप से मिलना जारी रखता तो मेरा व्यक्तित्व कैसा आकार लेता? वह मार्क्सवादी नहीं थे, लेकिन निश्चित रूप से नास्तिक थे,जो मानते थे कि मक्खन भगवान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
उन्होंने श्री अरबिंदो के बारे में कुछ पढ़ा था और इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि योग आत्महत्या की एक सहज प्रवृति थी। जाहिर है कि उस समय उनके लिए मानव व्यक्तित्व, मानव अहंकार द्वारा गठित किया गया था। वह बर्नार्ड शॉ और ऐल्डस हक्सले से काफी प्रभावित थे
और एक व्यक्ति के खुद को तर्क और निर्दयतापूर्वक आंकने की क्षमता को बहुत महत्व देते थे।उन्होंने मुझे उन महान लेखकों से परिचित करवाया, जिन्हें मैंने अब तक नहीं पढ़ा था। कुल मिलाकर उन्हें किसी भी पारंपरिक नैतिकता या आचार संहिता से कोई वास्ता नहीं था क्योंकि वह स्पष्ट रूप से देख सकते थे कि किस तरह उसका इस्तेमाल किसी दूसरे साथी को गलत प्रमाणित करने के लिए किया जाता है।
मुझे यकीन है कि अगर मैं उनके प्रत्यक्ष प्रभाव में रहता तो मैं एक कम्युनिस्ट या तटस्थता का समर्थक नहीं बनता : मुस्लिम सांप्रदायिकता का प्रतिरूप। दिल्ली के बाहर मेरे प्रवास के दौरान मुझे लिखे गए उनके पत्रों ने मुझे मेरे विकास में एक निर्णायक बिंदु पर प्रभावित किया। लेकिन उनके पूरे व्यक्तित्व का आमने-सामने का प्रभाव कहीं अधिक प्रभावशाली होता।क्योंकि वह अपने ही आवेग के तहत विकसित होते और बढ़ते रहे, जो कि मेरे साथ नहीं हुआ। मुझे अपने से बेहतर लोगों द्वारा धकेलने की जरूरत पड़ती थी। इसके अलावा उनकी वृद्धि और विकास काफी तेज़ और गहरे थे, जिसे मैं अपने दम पर कभी भी प्रबंधित नहीं कर सकता था।
दिसंबर 1944 में मुझे दिल्ली छोड़ना पड़ा।मेरी पहली नौकरी बम्बई में थी जहाँ मेरे बॉस ने मेरे साथ बहुत ही घटिया व्यवहार किया। मैं पूरी तरह से टूट गया और दिल्ली में अपने रिश्तेदार को कुछ बहुत ही दयनीय पत्र लिखे। दो महीने के बाद मैंने कलकत्ता जाने के लिये बंबई छोड़ दिया जहाँ मुझे उम्मीद थी कि मेरे पिता मेरे लिए कोई नई शुरुआत की कोशिश करेंगे। हालांकि उन्होंने मुझे नौकरी दिलाने में मदद की।लेकिन वह मुझे हरियाणा के मेरे रिश्तेदारों और देशवासियों के तिरस्कारपूर्ण मजाक से नहीं बचा सके। वे अक्सर मेरी उच्च शिक्षा की तुलना मेरे छोटे वेतन से करते थे और मुझे “पढ़ा लिखा बेकार”की उपाधि से सम्मानित करते थे। हालांकि कुछ वर्षों बाद यही लोग मुझे बहुत इज्ज़त से देखने लगे जब मैं अधिक पैसा कमाने में सफल हो गया।लेकिन कलकत्ता में मेरे शुरुआती वर्षों में,इन लोगों ने मुझे बहुत परेशान किया।
दूसरे लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं, इस बारे में मुझे कभी बहुत चिंता नहीं हुई जब तक मैं अपनी प्रेरणाओं के प्रति सच्चा हूं। फिर भी उन लोगों की भीड़ में रहना एक बहुत बड़ी सजा थी,जिन्हें पैसे के अलावा किसी चीज की परवाह नहीं थी।मैं उन्हें अच्छी तरह समझ सकता था। मुझे पता था कि वे इससे बेहतर कुछ नहीं जानते थे। मुझे उनसे सहानुभूति भी होती थी क्योंकि वे एक पारंपरिक संस्कृति में जकड़े हुए थे जो अब भयानक भ्रष्टाचार से लिप्त हो चुका था। लेकिन मैं कभी भी उनकी मेरे साथ की अन्यमनस्कता को एक निंदात्मक रूप नहीं दे सका।वे अपने काम से काम क्यों नहीं रख सकते थेऔर मुझे अपने काम से मतलब रखने देते।
कलकत्ता पहुँचने के कुछ ही दिनों के बाद मुझे राम स्वरूप द्वारा भेजा एक पत्र मिला जो कि एक आदेश और निर्देश दोनों ही था। उन्होंने लिखा-“मैंने आपके पत्र पढ़े हैं जो आपने अपने रिश्तेदार को लिखे हैं।मैं आपकी स्थिति में आपके साथ सहानुभूति रख सकता हूं, लेकिन मैं आपकी आत्म दया की मनःस्थिति का समर्थन नहीं कर सकता। समाज ने आपको कुछ नहीं दिया, विरोध करने का अधिकार भी नहीं दिया, लेकिन यह कोई कारण नहीं कि आप बैठ कर रोएं। मैं चाहता हूं कि आप अपनी व्यक्तिगत अवस्था को समग्र रूप से सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ एक अधिक उद्देश्यपूर्ण विरोध के रूप में विकसित करें। यह संदेश एक शक्तिशाली औषधि की तरह था।मैं और अधिक अवैयक्तिक बनने की कोशिश करने लगा।
मेरा काम एक ट्रैवलिंग सेल्समैन का था और यह मुझे कलकत्ता से पेशावर तक ले गया। मैंने अपने शुरूआती दिनों में बिहार,उत्तरप्रदेश और पंजाब के लगभग सभी महत्वपूर्ण शहरों और कस्बों का दौरा किया।
लोगों से मिलना और नई जगहों को देखने का मेरा अनुभव बहुत अच्छा था। इसने मेरी कई रूढ़िवादी आदतों को तोड़ दिया। मैं शाकाहारी था और मैं हमेशा शाकाहारी रहा । लेकिन मुझे मुसलमानों सहित विभिन्न समुदायों के लोगों द्वारा तरह तरह के खाने-पीने की चीजों के परोसे जाने की आदत नहीं थी।एक दिन मैं चौंक गया और बहुत अशुद्ध,अस्वच्छ और अपवित्र महसूस किया जब अंबाला के एक होटल के मालिक ने मुझे बताया कि उस सुबह जिस पानी से मैंने स्नान किया था, वह पानी की खाल में बाथरूम में लाया गया था।
सीतापुर से लखनऊ के रास्ते में मैं एक मध्यम आयु वर्ग के मुस्लिम सज्जन के साथ ईश्वर के अस्तित्व के बारे में एक दिलचस्प चर्चा में लीन था।वह अंग्रेजी नहीं जानता था लेकिन बहुत शुद्ध उर्दू बोलता था। मुझे आश्चर्य हुआ कि इस भाषा में दर्शनशास्त्र में तकनीकी शब्दों की इतनी व्यापक शब्दावली थी। जहाँ कहीं भी मैं अरबी शब्दों को नहीं समझ पाता, वहाँ उसने मेरी मदद की। एक सहयात्री हमें ध्यान से सुन रहा था।जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं एक लाइलाज नास्तिक हूं, वे तुरंत मेरे द्वारा उत्तीर्ण की गई परीक्षाओं और उनमें प्राप्त की गई श्रेणी के बारे में पूछने लगे।
फिर उन्होंने बहुत तिरस्कारपूर्वक चर्चा का अंत करते हुए कहा-“तुसी मालिक नु नहीं मानदे तवी पाखे बेचदे फिरदे हो नहीं तंँ इन्नी तालीम पा के कुइ ओहदा नहीं पा जांदे?” (आप भगवान में विश्वास नहीं करते इसलिए तो पंखे बेचते जगह जगह भटक रहे हो अन्यथा आपकी इतनी डिग्रियाँ आप को एक सम्मानित अफसर बना देतीं। प्रत्युत्तर मैं मैंने कहा कि मैं भगवान पर विश्वास करने को तैयार हूं अगर वह मेरी एक अच्छी सी नौकरी लगवा दें ।वह मुसलमान सज्जन मेरी इस उदारता पर मुस्कुराए लेकिन चुप रहे क्योंकि यह दार्शनिकता पर एक भद्दा प्रहार था।निश्चित ही वे असहाय महसूस कर रहे थे क्योंकि यह उनका क्षेत्र नहीं था।
एक बार मैं रावलपिंडी से पेशावर जाने के रास्ते में पाकिस्तान की वरीयता के बारे में दो मध्यम आयु वर्ग के मुसलमानों के बीच एक बहुत ही हिंसक बहस का गवाह बन गया ।इनमें एक पंजाबी और दूसरा पठान था। वे पंजाबी की एक प्रांतीय भाषा में बात कर रहे थे जिनमें से कुछ को मैं स्पष्ट रूप से समझ नहीं पा रहा था। पठान ने यह कहकर तर्क दिया कि -“जिन्ना साला सूअर दा पुत्तर ऐह” यानि जिन्ना एक सूअर का बच्चा है। पंजाबी गुस्से में तमतमाता हुआ उठा ।उसका चेहरा गुस्से से लाल था और उसने पठान को चुनौती दी की कि वह यह वाक्य दोहरा कर दिखाए। पठान बिल्कुल शांति से बैठा रहा उसने पंजाबी सज्जन को घूर कर देखा और कहा -“असी फेर दसदा हां। जिन्ना साला सूअर दा पुत्तर ऐह ।” (मैं दोहराता हूं कि जिन्ना एक सूअर का बच्चा है )पंजाबी ने उस पर हमला करने की हिम्मत नहीं की क्योंकि पठान की आवाज और चेहरे में ऐसा स्वत्वबोध था । पेशावर की हमारी बाकी यात्रा एक मौन सन्नाटे में पूरी हुई ।
पेशावर से वापस जाते समय मैंने एक अधेड़ उम्र के अंग्रेज के साथ एक निचली बर्थ साझा की ।वह अभी हाल ही में ब्रिटिश सेना में मेजर के पद से सेवानिवृत्त हुए थे और मुंबई होते हुए अपने घर जा रहे थे। वह बहुत ही विनम्र थे और उनके पास न्यूनोक्ति की ब्रिटिश प्रतिभा थी।जब हम उस युद्ध के बारे में बात करने लगे जो अब समाप्त हो रहा था ,तो उन्हें मैं पसंद आया। वह एक या दो घंटे के बाद मेरे लिए एक पिता तुल्य बन गए और उन्होंने अपना दोपहर का भोजन भी मेरे साथ साझा करने की पेशकश की जो मैं नहीं कर सका क्योंकि मैं शाकाहारी था। मैंने अगले स्टेशन के प्लेटफार्म से अपने लिए कुछ खरीदा ।
जैसे ही उन्होंने दोपहर की झपकी लेने की तैयारी की मैंने पढ़ने के लिए किताब निकाली। यह थी “साम्राज्यवाद : लेनिन द्वारा पूंजीवाद का उत्तम चरण” इसे मैंने पहले लाहौर के कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यालय से खरीदा था।कवर पर उठी हुई मुट्ठी का प्रतीक बना था।अचानक मेजर के चेहरे पर खौफ के भाव आ गए। एक पवित्र इसाई के रूप में उन्होंने खुद को क्रॉस के चिन्ह से चिन्हित किया और अपने कोने में सरक गए।पर एक शब्द भी नहीं बोले। मैंने किताब तुरंत अपने सूटकेस में रख दी और जब तक हम पुरानी दिल्ली स्टेशन पर अलग नहीं हो गए तब तक वो या कोई भी साम्राज्यवाद की किताब नहीं खोली।अगर मैं कभी इंग्लैंड गया तो उन्होंने मुझे उनसे मिलने के लिए आमंत्रित किया और मुझे अपना कार्ड दिया जिसे मैंने लंबे समय तक नहीं रखा क्योंकि उस समय इंग्लैंड की यात्रा मेरे लिए एक अनसुना सपना था ।
लेकिन मेरी यात्रा के दौरान की सबसे महत्वपूर्ण घटना लाहौर में मैकलोएड़ रोड पर कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यालय का दौरा था।मेरे सहपाठी, जिनके पिता ने मुझे वर्षों पहले अपमानित किया था,लाहौर चले गए थे और ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के माध्यम से पार्टी के सदस्य बन गए थे। वही मुझे पार्टी कार्यालय ले गए। यह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और उसके आधिकारिक प्रकाशनों के साथ मेरा पहला संपर्क था। पार्टी कार्यालय में काम करने वाले कुछ युवक और युवतियां बंगाल से थे। जब मैंने अपनी टूटी फूटी बंगला में उनसे बात की तो वे तुरंत मुझसे जुड़ गए। मैंने लेनिन की कुछ किताबें और कई पार्टी पर्चे खरीदे जो ज़्यादातर पाकिस्तान की मांग के विषय पर थे। जब तक मैं कोलकाता लौटा तब तक मैंने उन सभी को पढ़ लिया था।
लाहौर में अपने छोटे प्रवास के दौरान मैंने पाकिस्तान के लिए मुस्लिम लीग की मांग की वैधता के संबंध में अपने मित्र के साथ लंबी चर्चा की।वह आश्वस्त थे और उन्होंने मुझे समझाने की कोशिश की की मांग न्याय संगत और पूरी तरह से लोकतांत्रिक थी । लेकिन मेरे दिमाग में बड़ी संख्या में सिख और हिंदूओं का ख़्याल आ रहा था। मैं पंजाब और एनडबल्यूएफपी में अपनी यात्रा के दौरान कई लोगों से मिला था और इस विषय पर उनसे बात भी की थी। यह सभी मुस्लिम मुल्लाओं के प्रभुत्व वाले राज्य में रहने के विचार का हिंसक विरोध कर रहे थे। लेकिन जहां तक मेरे दोस्त का सवाल है ये असली लोग नहीं थे ।उन्होंने कुछ प्रगतिशील लोगों की बात करना जारी रखा जो धार्मिक मतभेदों के बावजूद भाषा और संस्कृति में भाइयों के रूप में एकजुट थे। मुझे लगा कि मैं भी प्रगतिशील हूं लेकिन मुझे पाकिस्तान के बारे में कुछ भी प्रगतिशील नहीं दिख रहा था।मुस्लिम लीग में शूरवीरों,नवाबज़ादों,खान बहादुर और कट्टर मुल्लाओं का पूर्ण प्रभुत्व था।
कोलकाता लौटने पर मैंने अपने नियोक्ताओं से कहा कि मैं अब और यात्रा करने के लिए तैयार नहीं हूं नौकरी रहे या ना रहे ।उन्होंने मुझे वहां रहने दिया। मैं कॉलेज स्ट्रीट के कॉफी हाउस में अक्सर जाता था जहां मैंने अपना पहला उपन्यास लिखना शुरू किया । मैं अपने छोटे से कमरे में नहीं लिख पा रहा था जो मैं चार अन्य लोगों के साथ साझा करता था।इसलिए मुझे कॉफी हाउस में लिखने की आदत हो गई जो मेरे आरामदायक घर होने के बाद भी बनी रही। इन सत्रों के दौरान में बंगाली छात्रों के एक समूह से मिला जो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के सदस्य थे। वे मुझे अपने नेता के पास ले गए जिनका नाम मुझे अभी याद नहीं आ रहा ।उन्होंने मुझे आचार्य नरेंद्र देव और श्री जयप्रकाश नारायण के कुछ लेखों का हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद करने के लिए नियुक्त किया ताकि वे उनका बंगला में अनुवाद कर सकें। कोलकाता में एक बंगाली खोजना मुश्किल था जो सीधे हिंदी से बंगाली में अनुवाद कर सके।मुझे लगता है कि आज भी स्थिति वैसी ही है ।
मैंने बहुत तेजी से अनुवाद किया। सीएसपीके इन नेताओं ने जो कुछ लिखा था उसके हर शब्द से मैं सहमत था। यह तीस के दशक की शुरूआत के उनके लेखन थे जब सीएसपी ने कम्युनिस्टों के साथ संबंध नहीं तोड़ा था। मुझे उस गंभीर झगड़े की जानकारी नहीं थी जिसने उन्हें 1940 के बाद से विभाजित कर दिया था। मुझे नहीं पता कि मेरे अंग्रेजी अनुवादों का कभी बंगला में अनुवाद किया गया या नहीं लेकिन मुझे उन समाजवादी नेता से सम्मान जरूर मिला। वह मध्यम कद के दुबले पतले और काले रंग के आदमी थे । वह एक क्रांतिकारी थे और उन्होंने अंडमान में ब्रिटिश जेलों में लंबा समय बिताया था। एक संकरी अंधेरी गली में एक जीर्ण – शीर्ण निवास स्थान के अंदर उनका रहना बहुत ही कठिन था। उनकी शर्ट पर हमेशा कई पैबन्द लगे होते थे । वह अपने चारों और बिना किसी अन्य साज-सामान के एक छोटी सी चटाई पर बैठते थे। कभी-कभी वह बीड़ी पीते थे।लेकिन उनकी अभिव्यंजना काफी कठोर थी और वह बहुत कम बोलते थे।उन्होंने मुझ में उनके प्रति श्रद्धा की सीमा पर एक महान सम्मान को प्रेरित किया।
मुझ पर उनके विश्वास के कारण उन्होंने मुझे यह सुझाव दिया कि मैं हिंदी में एक साप्ताहिक का संपादक बन जाऊं जिसे सीएसपी कुछ समय से कलकत्ता के हिंदी भाषी लोगों के पढ़ने के लिए प्रकाशित कर रहा था। मैं बहुत दुविधा में था। यह एक ऐसा क्षेत्र था जिसमें मुझे पहले का कोई अनुभव नहीं था । लेकिन उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया।उन्होंने मुझसे कहा कि मैं मौजूदा संपादक से तो ज्यादा बुरा नहीं हो सकता जो ,उनके अपने शब्दों में ,यूपी से मात्र मैट्रिकुलेशन पास किया हुआ था । मैंने अपना कार्यभार संभाला और कुछ दिनों बाद पहला संपादकीय लिखा । उस समाजवादी साप्ताहिक के लिए यह मेरा आखिरी दिन था।
ये नेता हिंदी नहीं पढ़ सकते थे लेकिन अगर उन्हें हिंदी में कुछ पढ़ कर सुनाया जाए तो वह अच्छी तरह समझ सकते थे। जब उन्होंने पूर्व संपादक को मेरी रचना पढ़ते हुए सुना तो वे बहुत क्षुब्ध और बेचैन हो गए और तुरंत मुझे बुला भेजा।
बहुत सोच विचार और भाषा को चमकाने के बाद मैंने जो लिखा था उसके लिए मैं अपनी पीठ थपथपाने की उम्मीद कर रहा था। लेकिन मैंने जब समाजवादी नेता का कठोर चेहरा देखा तो मैं अवाक् रह गया। उन्होंने मुझसे सीधा सवाल किया-” क्या आप साम्यवादी हैं?” मैंने जब इस आरोप का आवेगपूर्ण विरोध किया तो उन्होंने प्रतिरोध करते हुए कहा -” लेकिन इस संपादकीय में आपने जो वाक्य लिखा है वह साम्यवादी वाक्य है । आप इसे कैसे समझाना चाहते हैं ? साम्यवादियों ने पहले भी हमारे दल में घुसने की कोशिश की थी जिसका हमारे दल पर विनाशकारी परिणाम हुआ था। हम इसे फिर से होने नहीं दे सकते। कोलकाता में तो बिल्कुल नहीं ।यह कोई छोटा शहर नहीं है जहां चतुर साम्यवादी विचारों से हमारे कुछ सहयोगियों की आँखों में धूल झोंका जा सके।” बात करते-करते उनका पारा चढ़ गया। यह पहली बार था जब मैंने उन्हें इतने कम समय में इतने सारे शब्द बोलते हुए सुना था।
मुझे उस संपादकीय का विषय याद नहीं है ।यह शायद कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों के बारे में था । मुझे उस विषय पर या किसी भी और विषय पर सीएसपी वाक्य के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। ना ही मैं पाकिस्तान के विषय को छोड़ कर कोई और साम्यवादी वाक्य जानता था। मुझे कॉफी हाउस के अपने दोस्तों से उम्मीद थी कि वे मुझे अपने नेता के क्रोध से बचाएंगे। लेकिन वे सब भी बहुत गुस्से में नज़र आ रहे थे।अपनी हताशा में मैंने नेता के पैर छुए और सबकी सौगंध खाते हुए कहा कि मैंने जानते बूझते किसी भी तरह की तोड़ मरोड़ नहीं की है,कि मैं सचमुच निर्दोष हूँ।वह महापुरुष तुरंत शांत हो गये। उन्होंने अपने दोनों हाथ मेरे सिर पर रख कर मुझे आशीर्वाद दिया और मुझे अलग-अलग पार्टी लाइनों पर चर्चा के लिए फिर से आने के लिए कहा। इस बीच मुझे उनके साप्ताहिक के लिए कोई और संपादकीय लिखने की मनाही हो गई थी।
मैं उनसे फिर कभी नहीं मिला। 16 अगस्त 1946 को कोलकाता में कुछ दिनों के बाद सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे । मैं उस दिन के दंगों के शुरुआती घंटों में एक मुस्लिम भीड़ द्वारा मार डाला गया होता क्योंकि मैं कॉफी हाउस बंद होने के कारण अपने घर की ओर वापस जा रहा था।मेरी धाराप्रवाह उर्दू और मेरी पश्चिमी पोशाक ने मुझे बचा लिया। मेरी पत्नी और दो साल का बेटा कुछ दिन पहले ही एक बड़े मुस्लिम इलाके की सीमा से लगे एक बड़े घर के एक छोटे से कमरे में मेरे साथ रहने आए थे ।17 तारीख की शाम को मुस्लिम उपद्रवियों से अपनी जान बचाने के लिये ,जो अपने हाथों में बंदूकें लिये घूम रहे थे,हमें उस घर को खाली करना पड़ा और पीछे की दीवार फांद कर भागना पड़ा था। अगर उसके तुरंत बाद सेना नहीं आती तो आज मैं जो लिख रहा हूं उसे लिखने के लिए जीवित नहीं रहता।
(यह श्री सीता राम गोयल जी द्वारा लिखी गयी पुस्तक ‘How I Became A Hindu’ के Chapter 4 का हिंदी अनुवाद है। इसको अंग्रेजी में पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएँ ।)
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