आगरा तक यह संदेशा पहुँच चुका था कि जयसिंह शिवाजी को पराजित करने में सफल हुए हैं। इस सन्देश आगरा पहुँचते ही औरंगजेब के मस्तिष्क में बहुत कुछ घूम गया और साथ ही जीजाबाई के भी! जीजाबाई को अपना सम्पूर्ण इतिहास स्मरण हो आया। क्या एक बार फिर से लक्ष्य तक नहीं पहुंचेगा कोई हिन्दू? क्या वह भी परतंत्र वायु में प्राण त्यागेंगी? उनके जीवन की तपस्या का परिणाम थे शिवाजी, और क्या यह तपस्या पूर्णतया निष्फल हो जाएगी? वह बार बार सोचतीं और बार बार उनके हृदय में दाराशिकोह की हत्या के दृश्य घूम जाते! कैसे औरंगजेब ने अपने ही भाई का कत्ल किया था और कैसे उसका कटा हुआ सिर काटकर अपने ही अब्बू के पास भेज दिया था।
जीजाबाई इतिहास के उस मोड़ पर थीं, जहाँ पर अब उन्हें आपदा में किये जाने वाले आदर्श व्यवहार को प्रदर्शित करना था। जैसे कौशल्या ने किया था, राम के वनवास जाते समय। कौशल्या को यह ज्ञात नहीं था, कि उनके पुत्र राम वनवास के बहाने सृष्टि के सबसे बलशाली एवं मायावी से लड़ने जा रहे हैं। कैसे ज्ञात होगा? पर जीजाबाई, उन्हें तो ज्ञात है कि उनका पुत्र इस समय एक ऐसी आपदा के मुख में जा रहा है, जहां से बाहर आने का मार्ग नहीं है। जिस व्यक्ति ने गद्दी के लिए अपने भाइयों को मार दिया, जन्म देने वाले को कैदी बना लिया, तो वह उस व्यक्ति के साथ क्या करेगा जो उसकी सत्ता के लिए खतरा है।
जीजाबाई के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। यह परीक्षा उन्हें देनी ही थी। पर वह कैसे दे सकती थीं? क्या अपना पुत्र उन्हें पुन: देखने के लिए मिलेगा? वह सोच में थीं? क्या करें? पुत्र भेज दें या फिर प्रतीक्षा करें? क्या करना चाहिए था? यह सत्य ही था कि शिवाजी को आगरा जाना ही था। औरंगजेब की सेवा में जाना ही था। अपनी प्रजा, जिसे वह बार बार यह आश्वासन दे चुके थे कि वह स्वतंत्र राज्य की स्थापना करेंगे? अब वह क्या करें? उन्हें अपने समस्त दुर्गों को उसी मुगल सेना को सौंपना होगा, जिस मुगल सेना के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए वह इतने वर्षों से लड़ रहे थे।
परन्तु सत्य यही था कि उन्हें वहीं जाना था। तथापि उन्हें यह भी ज्ञात था कि आम जनता का समर्थन उनके साथ है और इसके साथ ही शाइस्ता खान पर हमले के बाद से लोग उनके विषय में कई टिप्पणियाँ करते हैं एवं उन्हें रूहानी ताकत वाला व्यक्ति बताते हैं। उनके विषय में यह प्रचलित हो चुका था कि कहीं भी पहुँच जाता है यह पहाड़ी चूहा! वह हंस पड़े थे। अब इस पहाड़ी चूहे को इस आपदा में भी सेंध करनी ही होगी।
समस्या का स्तर तो वहीं जाकर पता चलेगा? पर जनता? जनता क्या सोचेगी? विद्रोह तो न कर देगी? बार बार वह सोचते? बार बार उनकी आँखों के सामने वह सभी सपने घूम जाते, बार बार स्वतंत्रता की पुकार उनके कानों में गूंजती? क्या जनता उनका साथ देगी? वह इसी में फंस जाते थे! उन्होंने आशा भरी दृष्टि से अपने मित्रों को देखा। जैसे मानो पूछ रहे हों कि क्या रुकेंगे वह उनके साथ या फिर? या फिर क्या किया जाए?
पर वह चले गए! आशंकाओं से भरे हुए। जैसे सब कुछ अपनी माँ के कंधे पर छोड़कर। निश्चिन्त! उन्हें अपनी माँ और जनता पर विश्वास था और जनता और जीजाबाई को शिवाजी पर! वह चले गए। आगरा में राजमहल में जो अपमान हुआ, उसने उन्हें हिलाकर रख दिया। आगरा में नायक और प्रतिनायक की प्रथम एवं अंतिम मुलाकात थी। वह मुलाक़ात विश्व इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण मुलाकातों में से एक थी। भारत के दक्कन से एक व्यक्ति, उस समय के सबसे बड़े बादशाह की माँद में प्रवेश कर चुका था। प्रवेश ही नहीं किया था बल्कि चुनौती दे दी थी। किसके बल पर? उस जनता के साथ के बल पर, जिसे वह पीछे छोड़ आए थे, सैकड़ों किलोमीटर दूर!
वह आगरा में बंदी हो गए थे। इतने बंदी कि वह बाहर नहीं निकल सकते थे। औरंगजेब ने जैसे स्वयं से कहा “वह पहाड़ी चूहा यहीं मरेगा! यहाँ कौन से पहाड़ है, जो वह कुतर कर बाहर जाएगा? वह निश्चिन्त था मैदान में! पर औरंगजेब को यह नहीं पता था कि चूहे भूमि में भी सुरंग बनाकर निकल जाते हैं। शिवाजी ने स्वयं की आँखों के स्वप्न को देखा, फिर अपनी माँ को स्मरण किया एवं अपनी जनता से समय माँगा! यह अवधि परीक्षा और प्रतीक्षा की अवधि थी। शिवाजी को शीघ्र ही ज्ञात हुआ कि उन्हें अब ग्वालियर या अफगानिस्तान के दुर्ग में कैद कर दिया जाएगा। यह योजना औरंगजेब बना रहा था।
पर उस योजना से पहले ही शिवाजी अपनी योजना में सफल हुए और निकल लिए मिठाई की टोकरी में बैठकर। इस योजना का पता नहीं चल पाया, किसी को भी! यह इतनी शांत एवं गोपनीय योजना थी कि कोई जान ही नहीं पाया कि ऐसा भी हो सकता है? पर शिवाजी ने योजना ही नहीं बनाई थी बल्कि उसके साथ उसे इस प्रकार क्रियान्वित किया कि वह सफल हो जाएं!
शिवाजी की आगरा से भागने की योजना एक ऐसी योजना थी, जो यह बताती है कि आपदा में किस प्रकार धैर्य से काम लेने से व्यक्ति बड़ी से बड़ी आपदा से बाहर निकल सकता है। वह इसलिए ऐसा कर पाए क्योंकि उनकी जनता को उन पर विश्वास था, उनकी जनता ने यह प्रश्न नहीं किये कि आप पराजित क्यों हुए? आप आगरा क्यों गए? बल्कि प्रतीक्षा की, और उस प्रतीक्षा का ही प्रतिफल था कि शिवाजी औरंगजेब की कैद से बाहर ही नहीं आए, बल्कि अपना स्वतंत्र हिन्दू मराठा साम्राज्य भी स्थापित किया।
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