पश्चिम बंगाल सहित प्रगतिशीलों के प्रिय प्रदेशों में रोज़ ही एक नई ऐसी घटना सामने आ रही है, जो बार बार महिलाओं की दुर्दशा को दिखा रही है, पर कथित प्रगतिशील फेमिनिस्ट जो यूनिवर्सल सिस्टरहुड का राग हर रोज़ गाती हैं, जो यूनिवर्सल सिस्टरहुड के नाम पर सीरिया की कवयित्रियों की कविता साझा करती हैं, जो ईरान की कवयित्रियों की कविताओं में क्रान्ति के बीज खोजती हैं, उहें कितना अधिक दृष्टिभ्रम है वह हाल ही में देश में घटित कुछ मामलों को देखकर लगता है।
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद से ही उन लोगों पर अत्याचार जारी हैं, जिन्होनें भाजपा को वोट दिया था। क्या आप सोच सकते हैं कि कथित रूप से दंड की सीमा क्या हो सकती है? हत्या तो है ही! मगर स्त्रियों के लिए हत्या से भी अधिक भयानक होता है बलात्कार और वह भी उसके परिजनों के सामने। कल हमने लिखा था कि कैसे एक साठ साल की स्त्री के साथ उसके पोते के सामने बलात्कार किया था, एक अवयस्क लड़की के साथ बलात्कार के बाद उसे जंगल में छोड़ दिया गया, और यह तो वह मामले हैं, जिन्होंने एसआईटी के लिए उच्चतम न्यायालय से गुहार लगाई है, फिर भी यूनिवर्सल बहनापे में सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान तक क्रान्ति और शोक खोजने वाली पिछड़ी प्रगतिशील फेमिनिस्ट अभी तक बंगाल तक नहीं झांक पाई हैं।
एक और राज्य है जहाँ पर इनकी नज़र नहीं जाती है, दरअसल वह प्रदेश और उस पर वहां उनका प्रिय रिलिजन, तो ऐसे में वह आँखें और कान दोनों ही बंद कर लेते हैं।
वह यह नहीं देखते कि एक अकेली स्त्री, न्याय के लिए उस व्यवस्था से लड़ रही है, जो सबसे ताकतवर है। जो पूरे विमर्श को बदलने का सामर्थ्य रखती है और जिसके लिए नया विमर्श पैदा करना भी कठिन काम नहीं हैं। फिर भी सिस्टर लूसी लड़ रही हैं। सिस्टर लूसी दरअसल एक बिशप द्वारा किये गए बलात्कार के खिलाफ लड़ रही हैं। यह सभी को पता है कि चर्च और चर्च सत्ता के खिलाफ बोलना खतरे से खाली नहीं है। क्योंकि उनके अपराधों के खिलाफ तो मीडिया भी नहीं बोलता। सिस्टर अभया को कब जाकर न्याय मिला था यह हम सभी ने देखा ही है।
मीडिया और इन प्रगतिशील पिछड़ी फेमिनिस्ट का रवैया बेहद एकांगी होगा है, जो चर्च और मस्जिद में औरतों के साथ होने वाले अपराधों पर मौन धारण करे रहता है। दिल्ली में मस्जिद के भीतर एक बारह साल की बच्ची के साथ हुए यौन शोषण पर यह देख लिया है। यदि आवाज़ उठती भी है तो केवल इसे एक क़ानून का मामला या फिर व्यक्तिगत छोड़ दिया जाता है। जबकि हिन्दुओं के किसी भी मामले में यह लोग शिवलिंग पर कंडोम, त्रिशूल पर कंडोम, जैसे कार्टून बनाने लगती हैं।
बेसिर पैर की कविताएँ साझा करने लगती हैं, मगर सिस्टर लूसी जैसी स्त्रियाँ जो वास्तव में स्त्री अस्मिता की लड़ाई लड़ रही हैं, वह इनके विमर्श का केंद्र नहीं बन पाती हैं। इनका यूनिवर्सल सिस्टरहुड, चर्च के आगे हथियार डाल देता है। क्यों डाल देता है, यह तो इन्हीं से पूछा जाना चाहिए!
जालंधर ड़ोससे (diocese) के पूर्व बिशप फ्रैंको मुलक्कल पर एक नन के साथ वर्ष 2014-16 के बीच कई बार अप्राकृतिक रूप से यौन सम्बन्ध बनाने का तथा बलात्कार करने का आरोप था, जब वह कोट्टयम में कुरुविलान्गदु कान्वेंट में थे। शिकायत के सामने आते ही वहां के कई congregation-समूहों की नन पीड़िता के समर्थन में आने लगीं। और सभी ने सरकार से न्याय की गुहार लगाई।
केरल में पुलिस ने फ्रैंको को हिरासत में तो लिया, परन्तु उसे उच्च न्यायालय द्वारा जमानत पर अक्टूबर 2018 में रिहा कर दिया गया। मगर उसी के बाद एक और नन सामने आई जिसने कहा कि फ्रैंको की ओर से उसे अश्लील मेसेज भेजे जाते थे और वह उसे अपने कमरे में बुलाता था तथा साथ ही उसने उसके साथ यौन दुर्व्यवहार किया।
एक, दो नहीं बल्कि यह नन फ्रैंको के खिलाफ चौदहवीं गवाह थी।
मगर वर्ष 2018 में भी केरल, जिसे सबसे प्रगतिशील और सबसे अधिक साक्षर प्रदेश कहा जाता है, न तो वहां से और न ही पिछड़ी वाम लेखिकाओं की ओर से एक भी शब्द इन ननों के समर्थन में आया। आता भी क्यों? क्या उन ननों का साथ उन्हें कुछ भी आर्थिक लाभ पहुंचा सकता है? नहीं! हाँ, यदि वह प्रभु श्री राम और सीता माता को अपशब्द कहती हैं तो अवश्य उन्हें प्रगतिशील माना जाता है और उन्हें उनके वह वामपंथी आलोचक क्रांतिकारी का तमगा देते हैं, जो स्वयं तो घर में सारे पूजापाठ करते हैं, और अपने लेखों और विमर्श में ब्राह्मणों को अत्याचार का प्रतीक बताते हैं। यह पिछड़ी मानसिकता वाली प्रगतिशील लेखिकाएं भी अपनी कहानियों में मंगलसूत्र और बिंदी को अत्याचार बताती हैं और स्वयं भारतीयता का प्रतीक समाज के सामने बनी रहती हैं।
तो ऐसी दोहरे मुंह वाली हिंदी फेमिनिस्ट लेखिकाएँ वैश्विक बहनापे की बात करते हुए केरल की सिस्टर लूसी, सिस्टर अनुपमा, सिस्टर आल्फी, सिस्टर जोसफिन, सिस्टर अन्सित्ता, और सिस्टर नीना रोज़ आदि के साथ आकर खड़ी नहीं होती हैं। यहाँ पर इनके यूनिवर्सल सिस्टरहुड की सीमा समाप्त है।
और वह चर्च जो दुनिया भर में मानवता की बात करते हैं, वह अपने ही संस्थान की नन के साथ नहीं खड़े हैं। न केवल केरल और भारत के चर्च सिस्टर लूसी का साथ नहीं दे रहे हैं बल्कि सिस्टर लूसी को अब वेटिकन से भी निराशा हाथ लगी है।
सिस्टर लूसी को वर्ष 2018 में प्रदर्शन में भाग लेने के कारण और पीड़िता के लिए न्याय मांगने पर अगस्त 2019 में चर्च की सेवा से हटा दिया गया था और परिसर खाली करने के लिए कहा था। हालांकि सिस्टर लूसी ने लडाई जारी रखने की बात कही थी। मजे की बात यह है कि सिस्टर लूसी को उनके जीवनयापन के नियमों का उल्लंघन करने पर अनुशासनात्मक कार्यवाही करते हुए हटाने की बात कही गयी थी।
फ्रान्सिकन क्लेरिस्ट कांग्रेगेशन ने सिस्टर लूसी कलाप्पुरा को बलात्कार के आरोपी फ्रैंको मुलक्क्ल के खिलाफ आन्दोलन में हिस्सा लेने, कविताएँ लिखने और कैसे ड्राइव करना है, यह सीखने पर निष्कासित कर दिया था।
प्रगतिशीलो का दोगला चेहरा इस मामले ने सामने ला दिया है!
दुनिया भर में मानवता का ढिंढोरा पीटने वाले हिंदी के पिछड़े बुद्धिजीवियों का दोगला चेहरा केवल इस एक मामले ने दिखा दिया है। इस मामले में उनका मौन रहना यह दिखाता है कि उनकी सीमाएं केवल वहीं तक हैं। और ईसाई, जिन्हें हिन्दुओं के हर मामले में पिछड़ा कहने की आदत है, वह अपने ही चर्च की नन के साथ खड़े नहीं हो सकते हैं। वेटिकन ने भी उनकी अपील को ख़ारिज कर दिया है!
सिस्टर लूसी की निराशा केवल वेटिकन से ही नहीं है, वेटिकन कभी भी अपने नियुक्त बिशप के खिलाफ कुछ नहीं कहेगी क्योंकि इससे उसकी प्रभुता पर प्रश्नचिन्ह उठेंगे। इससे यह साबित हो जाएगा कि चर्च जो हैं वह शोषण के स्थान हैं और जिस दैहिक पवित्रता की बात यह लोग करते हैं, वह और कुछ नहीं ढोंग है।
सिस्टर लूसी ने निराश होते हुए कहा है कि उनकी बात सुने बिना ही उन्हें डिसमिस किया है!
प्रश्न यही है कि क्या सिस्टर लूसी की आवाज़ सुनी जाएगी? क्या विश्व का कथित सबसे प्रगतिशील रिलिजन अपने रिलिजन की औरतों को न्याय दिला पाएगा? या फिर उनके रिलिजन की रिलीजियस औरतें इसी तरह शोषण का शिकार होती रहेंगी?
प्रश्न कथित पिछड़ी प्रगतिशील हिंदी लेखिकाओं से भी है कि क्या उनका कार्य केवल आलोचकों के इशारों पर चुनिन्दा विरोध करना है या फिर सिस्टर लूसी जैसी औरतों के साथ खड़ा होना भी है? क्या उनका यूनिवर्सल सिस्टरहुड सीरिया की लेखिकाओं के साथ ही है या फिर केरल की पीड़िताओं के साथ भी है?
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