आजकल हम लोग बहुधा देखते हैं कि बच्चे मंदिरों के सामने सिर भी झुकाने से इंकार करने लगे हैं। ब्राह्मण कहलाने में लज्जित अनुभव करने लगे हैं, एवं उनके पास कई प्रश्नों का संसार होता है। उनके पास अपनी ही संस्कृति को लज्जित करने वाले प्रश्न होते हैं, ऐसा क्यों होता है? ऐसा क्यों होता है कि वह अपनी पहचान को ही निरस्त करने लगते हैं। क्या आपके मन में भी यह प्रश्न आता है? स्वाभाविक है आता ही होगा, परन्तु कई लोग इन प्रश्नों एवं इस प्रवृत्ति को अनदेखा कर देते हैं, जबकि यह अनदेखा किए जाने पर प्रश्नों का एक पहाड़ बना देते हैं।
हम सभी जानते हैं कि पाठ्यपुस्तकें बच्चों के लिए ज्ञान का प्रथम स्रोत होती हैं। वही वह प्रस्थान बिंदु होती हैं, जहाँ से बच्चा अपने विचारों की यात्रा आरम्भ करता है। एवं यहीं पर आवश्यक होता है कि बच्चों के पास सही एवं पूर्ण जानकारी हो। हमारे बच्चों के मस्तिष्क में जो जा रहा है, वह केवल आंकड़े हैं और वह भी झूठे, जानकारी जा रही है और वह भी भ्रमित करने वाली। जब हम कक्षा छ की सामाजिक विज्ञान की पुस्तक देखते हैं तो यह पाते हैं कि इतिहास के नाम पर जो बच्चों के मस्तिष्क में विष भरा जा रहा है, क्या वही कहीं न कहीं इस के लिए उत्तरदायी तो नहीं हैं? कहीं न कहीं तथ्यों से रहित काल्पनिक इतिहास परोसने वाली यह पुस्तकें ही इस बात के लिए उत्तरदायी नहीं हैं? आइये कुछ उदाहरणों के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं। यहाँ पर केवल कक्षा छ के सामजिक विज्ञान की पुस्तक से उदाहरण लिए गए हैं।
इसमें अध्याय 6 राज्य, राजा और एक प्राचीन गणराज्य में शासकों के बनने की प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख है। उसकी कथित विधि का उल्लेख है, परन्तु यह कहीं वर्णित नहीं है कि किस राजा ने अश्वमेध यज्ञ कराया एवं उसकी क्या विशेषताएं थीं, सैन्य शक्ति क्या थी एवं किन किन राजाओं को परास्त किया। हमें अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख रामायण एवं महाभारत में प्राप्त होता है, परन्तु यह अत्यंत विरोधाभासी बात है कि इतिहास की इस पुस्तक में भारत का इतिहास बौद्ध धर्म या जैन धर्म के महावीर स्वामी से आरम्भ होता है, परन्तु उससे पूर्व के अश्वमेध यज्ञ के उल्लेख में किसी भी धर्म का उल्लेख नहीं है। हां जब बुरा लिखना है तो अवश्य ‘पुरोहित’ शब्द का उल्लेख है, जैसे “राजा के ऊपर पुरोहित पवित्र जल के छिड़काव के साथ कई अन्य अनुष्ठान करता था। विश अथवा वैश्य जैसे सामान्य लोग उपहार लाते थे। जिन्हें पुरोहित शूद्र मानते थे, उन्हें कई अनुष्ठानों में सम्मिलित नहीं किया जाता था।”
अब प्रश्न यह उठता है कि इस तथ्य का क्या स्रोत है और यह कौन से अश्वमेध यज्ञ के विषय में है? अश्वमेध यज्ञ क्या था, क्या संस्कृति थी? इस विषय में यह पुस्तक पूरी तरह से मौन है। जब इस पुस्तक के अनुसार प्रमाणिक इतिहास गौतम बुद्ध या चन्द्रगुप्त मौर्य या अशोक से आरम्भ होता है तो यह प्रश्न आना चाहिए कि अश्वमेध किसकी संस्कृति में होता था और उसकी भव्यता क्या थी? एक अर्ध सत्य एवं भ्रामक सूचना देकर यह पुस्तक शांत हो जाती है। और यहीं से हमारे बच्चों के मस्तिष्क में प्रश्न उठते हैं कि शूद्रों को किन संस्कारों में सम्मिलित नहीं होने दिया जाता था?
इसी अध्याय में आगे बढ़ते हैं तो लिखा है “पुरोहितों ने लोगों को चार वर्गों में विभाजित किया, जिन्हें वर्ण कहते हैं, उनके अनुसार प्रत्येक वर्ण के अलग अलग कार्य निर्धारित थे। पहला वर्ण ब्राह्मणों का था, उनका काम वेदों का अध्ययन – अध्यापन और यज्ञ करना था, जिनके लिए उन्हें उपहार मिलता था। दूसरा स्थान शासकों का था, जिन्हें क्षत्रिय कहा जाता था, उनका कार्य युद्ध करना एवं लोगों की रक्षा करना था, तीसरे स्थान पर विश या वैश्य थे, इनमें कृषक पशुपालक एवं व्यापारी आते थे। क्षत्रिय एवं वैश्य दोनों को ही यज्ञ करने का अधिकार था, वर्णों में अंतिम स्थान शूद्रों का था और इनका कार्य इन तीनों वर्णों की सेवा करना था, इन्हें कोई अनुष्ठान करने का अधिकार नहीं था। प्राय: औरतों को शूद्रों के समान माना गया, महिलाओं और शूद्रों को वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं था।”
यह भी बिना किसी सन्दर्भ के प्रदान किया गया है। छोटे बच्चों के मस्तिष्क में उन वेदों के प्रति घृणा भरने का यह प्रयास है जिन्हें वेदों का अर्थ नहीं ज्ञात है तथा न ही जिन्हें यह ज्ञात है कि वेदों में विश्व का सबसे प्राचीन ज्ञान भण्डार समाहित है।
ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं, कई तथ्य हैं जिन्हें बिना किसी सन्दर्भ के प्रस्तुत किया गया है तथा वह बहुसंख्यक हिन्दू धर्म को जानबूझकर नीचा दिखाने के लिए ही जैसे लिखे गए हैं। आगे लिखा गया है कि “अछूत वर्गों में कुछ शिल्पकार, शिकारी एवं भोजन संग्राहक शामिल थे।”
हमारे हिन्दू धर्म में शिल्पकार को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है एवं हिन्दू धर्म में शिल्प कला का कितना महत्व हैं एवं कितना उन्हें आदर दिया जाता है वह मात्र इसी बात से स्पष्ट होता है कि शिल्प के देवता विश्वकर्मा जी की जयन्ती हर वर्ष मनाई जाती है। हम शिल्पकारों को देवता मानते हैं, ऐसे में यह पुस्तक बच्चों के हृदय में जानबूझकर गलत तथ्य भरती है।
इसी के साथ जब अध्याय 8 का यह शीर्षक ही स्वयं में अत्यंत भ्रामक है “अशोक: एक अनोखा सम्राट, जिसने युद्ध का त्याग किया”।
यह इसलिए अपमानजनक है क्योंकि मात्र अहिंसा के महिमामंडन से बच्चे के मस्तिष्क में यही छवि बैठती है कि सेना को नहीं होना चाहिए और सेना अत्याचार का ही एक रूप है, जबकि ऐसा नहीं है। किसी भी संप्रभु देश के लिए आवश्यक है कि उसके पास एक सुसज्जित सेना रहे। जिसके पास अपने शत्रुओं का सामना करने का साहस हो। अशोक के विषय में भी कई मिथकों का खंडन होता रहा है।
अगले लेख में हम जानेंगे कि इन पुस्तकों को लिखने वाली समिति के सदस्यों की राजनीतिक दृष्टि क्या है एवं क्या वह वाकई हमारे बच्चों के लिए इतिहास लिखने के लिए योग्य भी थे या फिर उन्हें किसी राजनीतिक उद्देश्य हेतु प्रयोग किया गया।
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