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Friday, March 29, 2024

सूरदास: चेतना और जीवन देने वाले संत कवि

वैशाख शुक्ल पंचमी, एक ऐसी तिथि जिस दिन भारत भूमि पर ऐसे संत का जन्म हुआ जिन्होनें भक्ति को वात्सल्य की दिशा दे दी।  भगवान के जो रूप जो पहले आदर्श रहे थे, उनके बाल रूप को ऐसे प्रस्तुत किया कि कान्हा सबके हृदय के बाल गोपाल बन गए। और मानसिक रूप से टूटा हुआ समाज अपने प्रभु के बाल रूप को देखकर ही चेतना प्राप्त करने लगा। सूरदास ने भक्ति को प्रेम का ऐसा चोला पहनाया कि व्यक्ति अपनी समस्त पीड़ाओं का निरावरण कृष्ण के बाल रूप में ही पाने लगा।

जीवन परिचय:

यद्यपि उनके जन्म के वर्ष के विषय में भी मतभेद हैं परन्तु आचार्य राम चन्द्र शुक्ल के अनुसार उनका जन्म काल संवत 1540 के लगभग एवं मृत्यु संवत 1620 के आसपास ही प्रतीत होता है। मथुरा के रुनकता गाँव में ब्राह्मण परिवार में जन्मे  सूरदास गऊ घाट पर साधु या स्वामी के रूप में रहा करते थे।

गोवर्धन पर श्री नाथ जी का मंदिर बन जाने के कारण जब एक बार वल्लाभाचार्य गऊ घाट पर उतरे तो सूरदास उनके दर्शन को आए और उन्हें अपना पद गाकर सुनाया। वल्लभाचार्य यह पद सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए एवं उन्हें अपना शिष्य बना लिया। आचार्य ने उन्हें आदेश दिया कि वह भागवत कथाओं को गाने योग्य पदों में रचें।

उन्होंने भागवत कथाओं का, कृष्ण के सौन्दर्य का एवं उनके बालपन का अनुपम वर्णन किया है। कृष्ण के मनोहारी रूपों का उन्होंने माधुर्यमयी ब्रजभाषा में वर्णन किया है। इन कथाओं में उपमा, उत्प्रेक्षा एवं रूपक अलंकारों का वर्णन है। भावों की भूमि पर वह पाठक को भिगोते हुए चले जाते हैं।  वह कृष्ण के रूपों का जो वर्णन करते हैं, उसे शब्दों में उतार पाना किसी और व्यक्ति की क्षमता से बाहर है।

उनके द्वारा किये गए वर्णन में न ही शब्दों की कमी प्रतीत होती है, न अलंकार की और भाव तो जैसे हृदय में बहते ही रहते हैं। और ईश्वर के जिस साकार रूप में उन्होंने उपासना की है, वह जैसे उनकी रचनाओं के माध्यम पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत हो जाता है।उनके कृष्ण लीला पुरुषोत्तम हैं।  वह नाना प्रकार की लीलाएं रचते हैं। वह क्रीड़ा करते हैं, वह अपनी माता यशोदा से प्रश्न करते हैं कि दूध तो पी लिया, पर उनकी चोटी कब बढ़ेगी। उनके कृष्ण पाठकों को जीवन से जोड़ते हैं।

मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी।

किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥

तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।

काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥

काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।

सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥

वह अपनी रूठी माता को मनाते भी हैं कि मैंने तो माखन नहीं खाया। वह तो यह ग्वाल बाल हैं, जो उनके मुख पर माखन चुपड़ देते हैं, अन्यथा वह तो माखन चुराने का सोच भी नहीं सकते।

कृष्ण और राधा के प्रति जो प्रेम है, उसका वर्णन भी सूरदास ने श्रेष्ठतम रूप में किया है। उनकी भक्ति में प्रेम और श्रृंगार का समावेश रहा। क्योंकि प्रेम से परे जीवन कहाँ? उन्होंने कृष्ण और राधा के प्रेम का सहज वर्णन किया है, जो एक दूसरे के सौन्दर्य एवं बातों आदि पर परस्पर मोहित हो जाते हैं। उनके प्रेम के आरम्भ का वर्णन करते हुए लिखा है:

बूझत स्याम कौन तू गोरी।

कहाँ रहति काकी है बेटी, देखी नहीं कहूँ ब्रज खोरी।।

काहे कौं हम ब्रज-तन आवति, खेलति रहति आपनी पोरी।

सुनत रहति स्रवननि नंद-ढोटा,करत फिरत माखन दधि चोरी।।

तुम्हरौ कहा चोरि हम लैहैं, खेलन चलौ संग मिलि जोरी।

सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी।। (सूरसागर)

निर्गुण का खंडन:

भक्ति काल में भक्ति की दो परम्पराएं थीं। निर्गुण भक्ति एवं सगुण भक्ति। सगुण भक्ति के दो अत्यंत महान कवि हैं, जिनमें एक ने प्रभु श्री विष्णु के मर्यादापुरुषोत्तम अवतार प्रभु श्री राम को हर घर में पहुँचाया तथा एक ने विष्णु के प्रेम अवतार प्रभु श्री कृष्ण के बाल रूप का ऐसा स्वाभाविक वर्णन किया है जो हिंदी साहित्य ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य में अन्यत्र प्राप्त होना दुर्लभ है। उन्होंने निर्गुण ब्रह्म का खंडन गोपियों के मुख से करवाया है:

निरगुन कौन देश कौ बासी।

मधुकर कहि समुझाइ सौंह दै बूझति सांच न हांसी॥

को है जनक जननि को कहियत कौन नारि को दासी।

कैसो बरन भेष है कैसो केहि रस में अभिलाषी॥

पावैगो पुनि कियो आपुनो जो रे कहैगो गांसी।

सुनत मौन ह्वै रह्यौ ठगो-सौ सूर सबै मति नासी॥

क्या वह जन्मांध थे?

एक प्रश्न बार बार उभर कर आता है कि क्या सूरदास जन्मांध थे या फिर बाद में किसी दुर्घटनावश अंधे हुए। यह प्रश्न इसलिए पाठकों एवं आलोचकों के हृदय में उपजता है क्योंकि जितना सुन्दर वर्णन बाल चेष्टाओं का सूरदास ने किया है, वह कोई जन्मांध नहीं कर सकता है। जिस व्यक्ति ने अनुभव न किया हो क्या वह उसे लिख सकता है? यही प्रश्न आलोचकों को बार बार कचोटता है। एवं कहीं न कहीं वह इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि वह जन्मांध थे।  श्री श्याम सुन्दरदास जो स्वयं हिंदी के अनन्य साधक थे एवं उन्होंने और उनके कुछ साथियों ने मिलकर ही काशी नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना की थे, वह लिखते हैं कि सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि श्रृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।’

वहीं डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी भी उनके जन्मांध होने पर संदेह व्यक्त करते हैं।

हाँ, इतना सत्य है कि वल्लाभाचार्य से भेंट के समय वह नेत्रहीन थे। यद्यपि नागरी प्रचारणी सभा काशी से प्रकाशित एवं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा रचित पुस्तक सूरदास में एक स्थान पर उल्लेख है कि साहित्य लहरी के अंत में एक पद है जिसमें सूरदास अपनी वंश परम्परा के विषय में लिखते हैं। उस पद के अनुसार सूरदास पृथ्वीराज के कवि चंदरबरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट थे।

चंद कवि के कुल में हरीचंद हुए, जिनके साथ पुत्रों में से सबसे छोटे सूरजदास या सूरदास थे। शेष छह भाई जब मुसलमानों से युद्ध करते हुए मारे गए, तब अंधे सूरदास बहुत दिनों तक इधर उधर भटकते रहे। एक दिन वह कुँए में गिर पड़े और छह दिन तक पड़े रहे। सातवें दिन भगवान श्री कृष्ण उनके समुख प्रकट हुए और दृष्टि देकर दर्शन दिए। भगवान से सूरदास जी ने कहा कि जिन नेत्रों से मैंने आपके दर्शन किये, उन नेत्रों से मैं अब और कुछ न देखूं। और सदा आपका भजन करूँ। और फिर कुँए से जब भगवान ने उन्हें बाहर निकाला तो वह पुन: नेत्रहीन हो गए।

और ब्रज में आकर भजन करने लगे। वहां गोसाईं जी ने उन्हें अष्टछाप में लिया।

हालांकि इस विषय में जो पद है, उसके विषय में आचार्य श्री रामचंद्र शुक्ल का कथन है कि वह भाषाई आधार पर सूरदास के काफी समय बाद का प्रतीत होता है।

यदि वह जन्मांध थे तब तो यह चमत्कार एवं प्रभु कृपा ही कही जाएगी कि उन्होंने नेत्रहीन होते हुए भी भावों का एक ऐसा संसार रच दिया है, जिनके रसों का आनंद आज तक हिंदी पाठक ही नहीं बल्कि विश्व के पाठक भी उठा रहे हैं।

पाठक तो उस आनंद में मगन है जो उन्होंने कृष्ण के सौन्दर्य से रच दिया है। उन्होंने उस समय कृष्ण की भक्ति का रस हिन्दुओं को प्रदान किया जिस युग में लोक में काली छाया छा चुकी थी। मनोबल टूटे हुए थे एवं जीवन एक भय में व्यतीत हो रहा था। लोक पीड़ा, अन्याय, अत्याचार तीनों में डूबा हुआ था। और इन सबके बीच जो आनंद की ज्योति दम तोड़ रही थी, उसे जागृत किया सूरदास की भक्तिपूर्ण रचनाओं ने। कृष्ण का मुख सौन्दर्य और उनकी बालचेष्टाएँ ऐसे प्रेमानंद को प्रदान करती हैं जो सम्पूर्ण पीड़ा को जैसे खींच लेता है।  और वह गाने लगता है

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।

जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥

कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।

परम गंग को छाँड़ि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥

जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल भावै।

‘सूरदास’ प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥

सूरदास, तुलसीदास जैसे संत कवि बार बार हमें यह प्रेरणा देते हैं कि जब भी लोकचेतना में नैराश्य भाव उत्पन्न होगा, शासक की ओर से उत्पीड़न होगा एवं धर्म पालन करना कठिन हो जाएगा तो यह प्रभु श्री राम या कृष्ण ही हैं, जो हमें मार्ग दिखाएंगे। वह चेतना को जागृत करेंगे। इसके साथ ही यह दोनों बार बार जैसे समाज को संकेत देते हैं कि साधु ही समाज को दिशा प्रदान करेंगे। जो समाज साधुओं का, संतों का तिरस्कार करेगा, वह समाज चेतना के विनाश करने का कार्य करेगा।


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