जब भी कभी भारतीय या कहें हिन्दू स्त्रियों की बात होती है, तो हमेशा उनका रोता बिसूरता चित्रण किया जाता है, साहित्य में तो मध्यकालीन तथा वैदिक स्त्रियों की उपलब्धियों पर वामपंथी साहित्यकारों ने न केवल मौन साधा है, अपितु समस्त उपलब्धियों को बिसरा दिया है. उन्हें छिपा दिया है और चेतना का प्रस्फुटन वह उन्नीसवीं शताब्दी से मानते हैं. उससे पहले स्त्रियों ने जो किया वह उनके लिए कोई मायने नहीं रखता है, परन्तु क्या बात इतनी सीधी है? क्या वाकई हिन्दू स्त्री का कोई इतिहास नहीं था? जब हम अतीत में झांकर देखते हैं तो हमें एक समृद्ध अतीत प्राप्त होता है, समृद्ध सनातनी स्त्री इतिहास! इस लेख के बहाने आइये कुछ ऐसी ही साहित्यिक एवं उन स्त्रियों पर एक दृष्टि डालते हैं जिन्होनें विमर्श का आरम्भ किया।
वामपंथी साहित्यकार यह झूठ फैलाते रहे कि हिन्दू स्त्रियों में सबसे ज्यादा पिछड़ापन था, परन्तु इतिहास के पन्नों में दबी हुई वह समस्त स्त्रियाँ चाहती हैं कि उनकी कहानियों पर भी बात हो! वह चाहती हैं कि उनके लिए जो कहा गया है, वह उनके दृष्टिकोण से देखा जाए। मगर कौन है जो देखेगा? परन्तु कौन है जो यह कहेगा कि उस युग की स्त्रियाँ यह कहना चाहती थीं। कौन है जो यह कह पाएगा कि उस युग की स्त्रियाँ यह कहा करती थीं। प्रश्न एक ही है कि उस युग की स्त्रियों पर जो बातें हो रही हैं, उन्हें कौन कह रहा है और क्यों कह रहा है? और किस प्रकार कह रहा है। क्या वह सभी तथ्य वाकई उस युग की स्त्रियों पर लागू होते हैं? ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जिनका उत्तर हमें स्त्री रचनाकार होने के नाते खोजना है। कुछ मिथकों पर बात करनी है, कुछ ऐसे झूठे तथ्यों पर बात करनी हैं, जिन्हें सत्य मान लिया गया। स्त्री होने के नाते बहुत कुछ समाज के एक वर्ग द्वारा उस पर थोप दिया गया। ऐसा नहीं था, कि स्त्री ने कभी बोला ही नहीं था! सबसे बड़ा झूठ आज तक यही बोला जाता रहा है कि स्त्रियों ने कुछ कहा नहीं! इससे बढकर झूठ नहीं हो सकता क्योंकि इसका प्रमाण वेदों से लेकर वर्तमान में महादेवी वर्मा तक के स्वर हैं। मैं यहाँ मात्र स्त्री रचनाकारों के विषय में ही बात करना चाहूंगी और उन कथाकथित वर्जित क्षेत्रों में लेखन के विषय में, जिनके विषय में कहा जाता था कि स्त्रियाँ नहीं लिख सकतीं!
क्या आज ही स्त्रियाँ कथित रूप से न्याय और देह दोनों पर लिख सकती हैं? क्या आज ही स्त्रियाँ राम पर लिख सकती हैं? राम इसलिए क्योंकि कृष्ण को स्त्रियों का प्रिय देव माना गया है, राम एक ऐसे देव रहे जिन्हें स्त्रियों ने अपना नहीं माना! क्या यह विमर्श कि राम आततायी हैं, आधुनिक स्त्री विमर्श के बाद आया, यह सब अपने आप में तमाम प्रश्न हैं।
रामभक्ति एवं निर्गुण काव्य धारा की कवियत्रियाँ:
ऐसा कहा जाता है कि स्त्रियाँ राम भक्ति की रचनाएं नहीं रच सकतीं या कहें कि वह राम से दूरी करती हैं। क्या यह सत्य है या मिथक? या ऐसी कवियत्रियों को जानबूझकर उपेक्षित किया गया। इतिहास के पन्नों में राजस्थान में प्रतापकुंवरी बाई हमें प्राप्त होती है, जिन्होनें राम भक्ति की रचनाएं रचीं। स्त्रियों का सहज आकर्षण कृष्ण के प्रति है, अत: भक्तिकाल में अधिकतर रचनाएँ कृष्ण भक्ति काव्य की ही प्राप्त होती हैं। परन्तु आधुनिक काल में प्रतापकुँवरि इस सीमा से परे जाती हुई नज़र आती हैं। उन्होंने राम पर बहुत लिखा है, कुछ पंक्तियाँ हैं:
अवध पुर घुमड़ी घटा रही छाय,
चलत सुमंद पवन पूर्वी, नभ घनघोर मचाय,
दादुर, मोर, पपीहा, बोलत, दामिनी दमकि दुराय,
भूमि निकुंज, सघन तरुवर में लता रही लिपटाय,
सरजू उमगत लेत हिलोरें, निरखत सिय रघुराय,
कहत प्रतापकुँवरी हरि ऊपर बार बार बलि जाय!
इसके साथ ही उन्हें जगत के मिथ्या होने का भान था एवं उन्होंने होली के साथ इसे कितनी ख़ूबसूरती से लिखा है:
होरिया रंग खेलन आओ,
इला, पिंगला सुखमणि नारी ता संग खेल खिलाओ,
सुरत पिचकारी चलाओ,
कांचो रंग जगत को छांडो साँचो रंग लगाओ,
बारह मूल कबो मन जाओ, काया नगर बसायो!
इसके अतिरिक्त इन्होनें राम पर बहुत पुस्तकों की रचना की है।
जब निर्गुण काव्यधारा की बात की जाती है तो भी उनमे स्त्री रचनाकारों की संख्या नगण्य प्राप्त होती है। जहां कबीर उस काल में स्त्री की परछाई से भी दूर रहने के लिए कह चुके थे कि ‘नारी की झाईं परे, अंधा होत भुजंग’, ऐसे काल में स्त्रियों ने निर्गुण होकर भक्ति रचनाएं लिखी होंगी, यह कल्पना से परे है। परन्तु स्त्री की प्रतिभा कल्पना से ही परे होती है। मध्यकाल एक अद्भुत काल था, जिसमें पराजित मानसिकता में एक चेतना का विस्तार हो रहा था, परन्तु जो वर्ग चेतना जगाने का प्रयास कर रहा था वह एक बड़े वर्ग स्त्री को मात्र रतिसुख ही मानकर बैठा हुआ था। ऐसे में चेतना का विस्तार कैसे होता, यह एक प्रश्न था।
स्त्रियों ने कलम थामी और जब लिखने बैठीं तो निर्गुण काव्य में भी वह लिखने लगीं। ऐसी ही थीं उमा, जिंनका उल्लेख मध्यकालीन हिंदी कवयित्रियाँ पुस्तक में डॉ. सावित्री सिन्हा करती हैं। उमा के लिखे पद पढ़कर यह ज्ञात हो जाता है कि उमा को योग का ज्ञान था। उसके राम भी कबीर की तरह निर्गुण राम थे, वह लिखती है:
ऐसे फाग खेले राम राय,
सुरत सुहागण सम्मुख आय
पञ्च तत को बन्यो है बाग़,
जामें सामंत सहेली रमत फाग,
जहाँ राम झरोखे बैठे आय,
प्रेम पसारी प्यारी लगाय,
जहां सब जनन है बंध्यो,
ज्ञान गुलाल लियो हाथ,
केसर गारो जाय!
यह कहा जा सकता है कि उसकी इस रचना में जिस फाग का वर्णन है वह ऐसी कामना का फाग है जिसमे वह राम और संतों के ज्ञान के रंग में रंग जाना चाहती है। उमा ज्ञान चाहती है और उमा के पद उसे ज्ञानी की श्रेंणी में रखने के लिए पर्याप्त हैं।
इसी प्रकार निर्गुण काव्य में गुरु की महिमा कबीर जितनी बताते हैं उतनी ही महिमा गुरु की सहजो बाई बताती हैं। सहजो बाई के भी राम हैं, मगर वह राम निर्गुण राम हैं। वह गुरु के बारे में लिखते हुए कहती हैं:
धन छोटासुख महा, धिरग बड़ाईख्वार,
सहजो नन्हा हूजिये, गुरु के बचन सम्हार
भक्ति को सर्वोपरि बताते हुए सहजो लिखती हैं
प्रभुताई कूँ चहत है प्रभु को चहै न कोई,
अभिमानी घट नीच है, सहजो उंच न होय!
इसके साथ ही राम को कितनी ख़ूबसूरती से सहजो लिखती हैं:
चौरासी के दुःख कट, छप्पन नरक तिरास,
राम नाम ले सहजिया, जमपुर मिले न बॉस!
और
सदा रहें चित्त भंग ही हिरदे थिरता नाहिं
राम नाम के फल जिते, काम लहर बही जाहीं!
और जिस प्रकार कबीर गुरु की महत्ता स्थापित करते हुए यह लिख गए हैं
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पायं,
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय!
उसी प्रकार सहजो लिखती हैं
सहजो कारज जगत के, गुरु बिन पूरे नाहिं
हरि तो गुरु बिन क्यों मिलें, समझ देख मन माहिं!
गुरु की महिमा पर सहजो का यह पद देखा जा सकता है:
सहजो यह मन सिलगता काम क्रोध की आग,
भली भई गुरु ने दिया, सील छिमा का बाग़!
इसी प्रकार सहजोबाई की गुरूबहन थी दया बाई, जिनकी रचनाओं में भी वही निर्गुण भक्ति प्राप्त होती है जो सहजो बाई की रचनाओं में प्राप्त होती है। उनकी कुछ पंक्तियाँ हैं:
भयो अविद्या तम को नास॥
ज्ञान रूप को भयो प्रकास।
सूझ परयो निज रूप अभेद।
सहजै मिठ्यो जीव को खेद॥
जीव ग्रह्म अन्तर नहिं कोय।
एकै रूप सर्व घट सोय॥
जगत बिबर्त सूँ न्यारा जान।
परम अद्वैत रूप निर्बान॥
बिमल रूप व्यापक सब ठाईं।
अरध उरध महँ रहत गुसाईं॥
महा सुद्ध साच्छा चिद्रूप।
वह जब परम अद्वैत रूप निर्बान, लिखती हैं तो सहज ही यह ज्ञान हो जाता है कि दयाबाई के लिए आत्मा और परमात्मा दोनों में कोई कोई अंतर नहीं था। दयाबाई की रचनाओं में काव्यतत्व प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है।
कहा जा सकता है कि स्त्रियों के लिए लेखन में कोई भी क्षेत्र वर्जित नहीं रहा था। स्त्रियों ने अपने लेखन में किसी भी सीमा में बंधने से इंकार किया था और वह वैदिक काल से ही अपने अनुसार विषय चुनती आ रही हैं। उसने न ही पहले किसी सीमा में स्वयं को सीमित किया और न ही आज कर रही है, तो बार बार यह कहना कि स्त्रियों ने इस पर नहीं लिखा या स्त्रियों ने उस पर नहीं लिखा, यह कहना बंद होना चाहिए। जब स्त्री सहजोबाई बनकर निर्गुण काव्य रचती है तो वह कबीर के समकक्ष ही परिलक्षित होती है।
(*कृष्ण भक्ति कवियत्रियों पर कल बात करेंगे)
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