डॉ. एन ई विश्वनाथ अय्यर अनुवाद के बारे में बताते हुए कहते हैं कि अनुवाद की प्राविधि एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण करने तक ही सीमित नहीं है। एक भाषा के एक रूप के कथ्य को दूसरे रूप में प्रस्तुत करना भी अनुवाद है। छंद में बताई गयी बात को गद्य में उतारना भी अनुवाद है” इसे आज आगे बढ़ाते हुए कहा जाए कि यह समाज की स्त्रियों की छवि का भी अनुवाद है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी और हमारी स्त्रियों की छवि पूरी तरह से समाप्त करने का कार्य कर रही है यह ओटीटी सीरीज।
हाल ही में जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा इस सम्बन्ध में आदेश आया था, तो यह सोचकर हर्ष हुआ था कि तांडव वेब सीरीज के बाद स्थिति बदलेंगी, एवं स्त्रियों को एक सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाएगा। परन्तु लाइफ इन शॉर्ट और पगलैट जैसी फ़िल्में देखकर फिर से मन निराश है कि एक बार फिर से स्त्रियों को केवल और केवल नकारात्मक ही चित्रित किया है।
पिछले दिनों जब प्रकाश जावड़ेकर ने ओटीटी के लिए नियम बनाने की बात की थी, तब भी यह आशा की किरण जागी थी कि अब सब ठीक होगा, परन्तु जैसे ही एकता कपूर आदि ने इन नियमों का स्वागत किया था, वैसे ही संदेह भी उत्पन्न हो गया था कि क्या एक बड़ा वर्ग जो इन फिल्मों के गलत नैरेटिव से त्रस्त है, उसे राहत मिलेगी। और यह शीघ्र ही इस यह आशंका वास्तविकता में बदल गयी जब देखा लाइफ इन शॉर्ट और बॉम्बे बेग्म्स में साड़ी पहने औरतों को यौन कुंठित दिखाया है।
एक प्रश्न है कि यदि बॉम्बे बेगम्स में रानी जो अब किसी मुस्लिम से शादी कर चुकी हैं, वह हिन्दू प्रतीक धारण किए है, करवाचौथ रखती है, आदि आदि! और करवाचौथ रखते हुए वह केवल अपनी देह की संतुष्टि के लिए किसी और व्यक्ति के पास जाती है। इस कहानी में न केवल साड़ी बल्कि करवाचौथ को भी अत्यंत विध्वंसात्मक तरीके से अनूदित कर दिया है।
ऐसे ही सीरीज लाइफ इन शॉर्ट में पहला एपिसोड नीना गुप्ता वाला एपिसोड है। वह एपिसोड देखने में इतना समाज विरोधी है कि क्या कहने। इसमें स्त्री का जो अकेलापन है उसे बिलकुल भी सृजनात्मक तरीके से नहीं दिखाया है, एवं यह समझ नहीं आ रहा कि नीना गुप्ता क्या अपनी बेटी और कामकाजी देवरानी की समस्या नहीं समझ पा रही हैं और इस सीरीज में उन्हें एक बेहद सीधी महिला दिखाया गया है, जिनका पति, जिनकी बेटी और जिनकी देवरानी सहित सभी उनके इस सीधेपन का लाभ उठा रहे हैं।
और जब उनका गुस्सा उबल रहा है तो टीवी पर दिल्ली के वीएनयू (जेएनयू) में आन्दोलन चल रहा है जिसमें विद्यार्थी फीस में वृद्धि को लेकर उबाल पर हैं और सड़क पर हैं। और फिर उन्हें अपने पति के साथ सत्याग्रह करने का अवसर प्राप्त हो जाता है।
कितनी सहजता से एक साधारण स्त्री की शक्ति का विध्वंस कर यह निर्मित कर दिया गया कि यदि वीएनयू में आन्दोलन न होता तो उन्हें अपने पति से विरोध करने की अक्ल नहीं आती। अर्थात एक आम मध्यवर्गीय मंगलसूत्र पहनने वाली स्त्री, उसे भी वीएनयू का आन्दोलन सुधार सकता है, अर्थात यह आन्दोलन कितना आवश्यक है!
ऐसे ही इसका दूसरा एपिसोड है, उसमें दिव्या दत्ता का पति संजय कपूर अपने दोस्त के सामने अपनी पत्नी को स्लीपिंग पार्टनर कहता है और वह इस उम्र तक जब उनकी किशोर बेटी कहीं होस्टल में पढ़ रही है, वह विरोध नहीं करतीं।
समस्या यह है कि लगभग सभी साड़ी पहनने वाली यह महिलाएं यौन रूप से अतृप्त हैं और वह अवसर खोजती हैं, उसकी पूर्ति करने के लिए। यौन असंतुष्टि कोई लाज या शर्म की बात नहीं है, यह स्वाभाविक है। परन्तु यही जीवन का मूल केंद्र है, यह प्रमाणित करना स्त्री आकांक्षाओं का विध्वंसात्मक अनुवाद है, क्योंकि स्त्रियों के जीवन में सृजन स्वत: ही परिलक्षित होता है।
समस्या यहाँ पर यह है कि चूंकि जो जो भी यह फिल्म बनाते हैं, उन्होंने भारतीय विमर्श को पढ़ा ही नहीं होता है, भारतीय व्यवस्था पर विश्वास होता ही नहीं है। यदि उन्हें यह ज्ञात होता कि हिन्दू दर्शन में इसी ऊब से बचने के लिए और समाज को सार्थक प्रदान करने के लिए गृहस्थ के उपरान्त वानप्रस्थ आश्रम आता है। वानप्रस्थ आश्रम में मोह की कड़ियाँ तोड़ने की दिशा में कदम उठाये जाते हैं। गृहस्थी को बच्चों के हाथों में सौंप कर समाज के लिए सार्थक करने का सन्देश दिया जाता है। परन्तु जिनके लिए गृहस्थी बंधन हो और बच्चा बोझ और जिनका विमर्श केवल परिवार तोड़ने के विमर्श के साथ आरम्भ होता है, वह कभी भी वानप्रस्थ की अवधारणा को नहीं समझ पाएगा।
मध्य वर्ग की साड़ी पहनने वाली स्रियाँ ही हिन्दू समाज की रीढ़ की हड्डी हैं। उन्हें जीवन जीने का शौक होता है, उन्हें आभूषण आदि के साथ स्वयं को सुसज्जित करने का शौक होता है, क्योंकि वह जानती हैं कि यह आभूषण मात्र धातु न होकर बुरे समय के लिए एक आसरा है। उन्हें नृत्य करना पसंद होता है क्योंकि उन्हें पता होता है कि नृत्य करने से जो लचीलापन आएगा वह उन्हें उनके सम्बन्ध निभाने में सहायता करेगा। वह महत्वाकांक्षी होती हैं, परन्तु वह अपने परिवार के साथ सफलता साझा करना चाहती हैं, माँ बनकर सृष्टि का अनुभव करना चाहती हैं। और अब यही साड़ी पहने स्त्रियाँ इन वामपंथी निर्माताओं के निशाने पर हैं और वह अपनी कहानियों में विकृत चित्रण के माध्यम से हम साड़ी पहनने वाली स्त्रियों की छवि पूरी तरह नष्ट कर रहे हैं, उनका विध्वंसात्मक अनुवाद कर रहे हैं।
यह वह दिखा रहे हैं, जो हम नहीं हैं। और इसी को एंद्रे लेफ्रे (Lefevere) इस प्रकार कहते हैं कि अनुवादक अनुवाद को अपनी विचारधारा या राजनीति के अनुसार मनचाहा रूप दे सकता है। और यह तनिक भी गलत नहीं होगा और लगेगा। वहीं बेकर का कहना है कि यदि वैचारिक आधार पर अनुवाद को बदला जाता है तो अनुवादक छवि की एक अलग ही कहानी प्रस्तुत कर देगा।
अनुवाद के इसी सिद्धांत को यह सीरीज बनाने वाले लोग प्रयोग कर रहे हैं, और एक ऐसी तस्वीर साड़ी पहनने वाली स्त्रियों की रच रहे हैं, जो वह नहीं हैं।
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