झारखंड में डायन के शक के आरोप में 5 लोगों की हत्या कर दी गयी है, जिसमें एक पांच साल का बच्चा भी शामिल है। गाँव में पशुओं की मौतें लगातार हो रही थीं, जिनको लेकर जोसफिना टोपनों एवं उनके परिवार को डायन मानते हुए पूरे परिवार का वध कर दिया गया। एक बात ध्यान देने योग्य है कि यह सभी ईसाई मज़हब में मतांतरित वनवासी थे, और उनको मारने वालों में भी उनके रिश्तेदार एवं कुछ अन्य ईसाई शामिल हैं। एक और बात ध्यान देने योग्य है कि मीडिया की चुप्पी सदा ऐसी घटनाओं पर होती है जहाँ पर ईसाई मज़हब से जुड़ा हुआ अन्धविश्वास का मामला आता है। और डायन कुप्रथा पर तो और भी ज्यादा। इस लेख में हम मुख्य धारा की मीडिया या कहें पश्चिम का मुख देखने वाली मीडिया की चुप्पी के रहस्य को समझने का प्रयास करेंगे।
भारत में अभी तक कुछ क्षेत्रों में स्त्री को डायन मानने की कुप्रथा चली आ रही है। कुछ वनवासी जातियों की लोक कथाओं में डायन का उल्लेख प्राप्त होता है, परन्तु यह नहीं ज्ञात होता है कि यह लोक कथाएँ कब लिखी गईं और कब से यह चलन में आईं क्योंकि भारत में डायन कुप्रथा सबसे पहली बार 1792 के आसपास आरम्भ हुई प्रतीत होती है। इसका कोई भी ऐसा प्राचीन इतिहास नहीं प्राप्त होता है।
तो फिर डायन या विच (witch) शब्द कैसे अस्तित्व में आया? भारत भूमि को डायन या डायन की भूमि बताने का पाप किसने किया और कब से इसका उद्भव हुआ, यह पूर्णतया ज्ञात नहीं है। परन्तु स्वयं को सभ्य बताने वाले पश्चिम में इसका उद्गम अवश्य प्राप्त होता है।
The Witch-Hunt in Early Modern Europe नामक पुस्तक में ब्रायन प. लेवाक (Brian P. Levack) लिखते हैं कि यूरोपीय इतिहास के आरंभिक आधुनिक काल के दौरान, लगभग 1450 से लेकर 1750 तक, हज़ारों लोगों को डायन के आरोप में मार डाला गया था। ऐसा क्यों किया गया, इस बात को लेकर कई धारणाएं एवं कथाएँ हैं, परन्तु यह पूर्णतया सत्य है कि भारत जैसे पवित्र देश में डायन जैसा शब्द और कहीं से नहीं बल्कि यूरोप से आया।
भारत में इसके आरम्भ होने की सही तिथि आज तक ज्ञात नहीं है। एवं यह केवल वनवासी क्षेत्रों में ही अधिक पाई गयी, अभी भी यह झारखंड आदि में कुछ जनजातियों में पाई जाती है। The Academic Journey of Witchcraft Studies in India शीर्षक से पेपर में शमशेर आलम और आदित्यराज तथ्यों से यह प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं कि भारत में दरअसल यह डायन कुप्रथा मिशनरी एवं औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा फैलाया गया षड्यंत्र है।
वह लिखते हैं कि औपनिवेशिक काल में मिशनरी एवं औपनिवेशिक प्रशासक ही वह व्यक्ति थे जिन्होनें डायन एवं डायन का शिकार करने वाले कई मामलों को रिकॉर्ड करने एवं खोजबीन करने का प्रयास किया था, तथा उनके इस कदम का उद्देश्य था औपनिवेशिक भारत में वनों में रहने वाले वनवासियों को नियंत्रित करना एवं निगमित करना। अत: इस विषय में प्रथम सूचना 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के उपरान्त ही प्राप्त होती है, जिसे अंग्रेज सैन्य विद्रोह कहते हैं एवं भारतीय जिसे 1857 का स्वतंत्रता संग्राम कहते हैं।
वह लिखते हैं कि इस संग्राम का विस्तार से अध्ययन किया गया है, एवं इसी पर ध्यान दिया गया है, जिस कारण छोटानागपुर की वनवासी जनजातियों के मध्य पहली वृहद डायन का शिकार वाली घटना पर ध्यान नहीं दिया गया। वह इस तर्क के लिए शशांक सिन्हा के पेपर Witch-hunts, Adivasis and the Uprising in Chhotanagpur का सन्दर्भ देते हैं, जिन्होंने इस घटना के विषय में लिखा है।
सिन्हा ने इतिहास के उन सन्दर्भों का सहारा लिया है जिसे हम द्वितीयक स्रोत कहते हैं। जिनमें औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा लिखे गए पुराने ऐतिहासिक नोट, न्यायिक निर्णय, जिला गजेट, अन्य इतिहासकारों द्वारा लिखी गयी लोक कथाएँ सम्मिलित हैं। सिन्हा यह दावा करते हैं कि कहीं न कहीं 1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशासन के खिलाफ हुए नागरिक विद्रोह एवं अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे नीति क्रियान्वयन में कुछ न कुछ स्पष्ट सम्बन्ध है।
छोटानागपुर में अंग्रेजी शासन के खिलाफ असंतोष बढ़ता जा रहा था क्योंकि वहां पर लिखित शपथ का नया नियम लागू हुआ था, कमिश्नर का बार बार दौरा किया जा रहा था तथा करों के नियमित भुगतान पर जोर दिया जा रहा था।
हालांकि कुछ इतिहासकार हैं जो सिन्हा के इस सिद्धांत को अस्वीकार करते हैं, परन्तु एक बात स्पष्ट है कि भारत में डायन कुप्रथा का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, यह कहीं न कहीं यूरोपियों के भारत आगमन के साथ ही आरम्भ होता है।
यदि यूरोप पर ही वापस आते हैं, तो ब्रायन प. लेवाक अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि हजारों लोगों को यूरोप में काला जादू करने एवं डायन होने के आरोप में मार डाला गया था। वह आगे लिखते हैं कि सोलहवीं शताब्दी के अंत तक कई शिक्षित यूरोपीय जनों का यह मानना था कि डायन न केवल खतरनाक जादू करती हैं, बल्कि वह कई प्रकार की शैतानी गतिविधियों में भी संलग्न रहती हैं। सबसे ज्यादा उनका यह मानना था कि डायन या डायन शैतानों के साथ प्रत्यक्ष संपर्क में रहती हैं। वह शैतान का आदर करती हैं।
फिर उनका यह भी मानना था कि डायनें समूहों में एकत्र होती हैं, और कई प्रकार के ईशनिंदा एवं अश्लील कृत्य करती हैं। तथा वह शैतान एवं अन्य डायनों के साथ यौन कर्म में लिप्त रहती हैं।
Berkeley Law के अनुसार आरम्भिक आधुनिक यूरोप में विच हंटिंग अर्थात डायन पकड़ने की जो प्रक्रिया थी, उसकी दो लहरें आईं, पहली थी पंद्रहवीं एवं शुरुआती सोलहवीं शताब्दी एवं दूसरी थी सत्रहवी शताब्दी, जिसमें डायनों को पूरे यूरोप में देखा गया, परन्तु सबसे ज्यादा दक्षिण पश्चिमी जर्मनी में देखा गया, जहाँ पर 1561 से लेकर 1670 तक सबसे ज्यादा डायन पकड़ने और मारने के मामल सामने आए।
ब्रायन प. लेवाक के अनुसार लगभग 90,000 से अधिक मामले सामने आए थे, जिन्हें जादू टोने के आरोप में मार डाला गया था, जिनमें से आधे से अधिक पवित्र रोमन साम्राज्य के जर्मनी क्षेत्र के थे।
वह यह भी कहते हैं कि चर्च के अभिलेख (records) यह भी दिखाते हैं कि जहाँ जहाँ पर लोगों को जादू टोने के आरोप में पकड़ा गया था, वहां पर दरअसल आरोप कहीं अधिक लोगों पर लगाए गए थे। नीदरलैंड्स जैसे स्थानों पर जहाँ पर अपेक्षाकृत कम मामले सामने आए थे, महिलाएं हमेशा इसी भय के साए में जीवित रहीं कि कहीं उन्हें जादूटोने के आरोप में पकड़ न लिया जाए, उन्हें डायन न घोषित कर दिया जाए।
वह आगे लिखते हैं कि वर्ष 1587 में फ्रांस में एक गाँव में न्यायाधीश (judge) ने यह दावा किया था कि उन्होंने 7,760 मामले डायनों के देखे थे। ऐसे ही 1571 में एक फ्रांसीसी डायन ट्रोई एस्चेल्स (Trois-Eschelles) ने किंग चार्ल्स नवम को यह बताया था कि उसके अधिकार में तीन लाख से कहीं अधिक डायन हैं, एवं वर्ष 1602 में चिकित्सक हेनरी बोगट ने दावा किया था कि पूरे यूरोप में अट्ठारह लाख से अधिक डायन हैं। एवं उन्होंने यह भी कहा कि हजारों की संख्या में हर जगह डायनें हैं।
यही कारण है कि यूरोप का संभ्रांत वर्ग डायनों से डरता था एवं उन्हें मारने के हर संभव प्रयास करता था। फिर चाहे उन्हें जलाकर मारा जाए या डुबो कर!
हज़ारों की संख्या में तो आधिकारिक रिकॉर्ड हैं, परन्तु इतिहासकार इन संख्या पर विश्वास नहीं करते हैं। उनके अनुसार यह संख्या कहीं अधिक है।
इतिहासकारों के मुताबिक़ यूरोप में जादूटोने के चक्कर में जहां चालीस हज़ार से लेकर एक लाख हत्याएं हुईं वहीं उनका यह भी कहना है कि यह संख्या तीन गुना तक अधिक हो सकती है। इतिहासकारों का यह भी कहना है कि हालांकि जादू टोने के चक्कर में पुरुषों की भी जान गयी मगर यह भी सच है कि इनमें एक तिहाई से अधिक स्त्रियाँ थीं।
जबकि इसी कालखंड के भारतीय इतिहास पर दृष्टि डाली जाए तो पाएंगे कि भारत उस समय साहित्य, कला एवं वास्तु में उत्कृष्ट कृतियाँ रच रहा था। हाँ, यह सत्य है कि उस काल में भारत एक आक्रमण के दौर से गुजर रहा था, परन्तु अंधविश्वासों में बंधा हुआ नहीं था, वह अपनी पहचान के लिए लड़ रहा था।
और इन लोगों ने भारत जैसे समृद्ध देश में आकर हमारे लोगों से कहा कि तुम्हारे यहाँ स्त्रियों को अधिकार नहीं! या यह कहा जाए कि अंग्रेजों ने आकर ही हमें और पिछड़ा किया। पश्चिम के नाम पर स्त्रियों को केवल देह और कपड़ों तक सीमित कर दिया। स्त्री की सोच को सीमित किया, और जहां वह पहले सत्ता को साधती थी, बाद में बाज़ार उसे साधने लगा।
प्रश्न कई हैं, प्रश्न भारत की समृद्धि का है एवं समृद्ध भारत के गौरवशाली इतिहास का है।
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