आज अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर हम सीता राम गोयल जी की पुस्तक “मैं हिन्दू कैसे बना: How I Became Hindu” अपने सभी पाठकों के लिए हिंदी में प्रस्तुत कर रहे हैं. स्वर्गीय सीता राम गोयल जी स्वतंत्र भारत के उन अग्रणी बौद्धिकों एवं लेखकों में से एक थे, जिनके कार्य एवं लेखन को वामपंथी अकादमी संस्थानों ने पूरी तरह से हाशिये पर धकेला. हम आम लोगों के लिए पुस्तकों/लेखों का खजाना उपलब्ध कराने के लिए VoiceOfDharma.org के आभारी हैं:
अध्याय 1: आर्य समाज से महात्मा गांधी तक
इस बौद्धिक आत्मकथा को लिखने का वचन लगभग बीस वर्ष पूर्व हशमत को दिया था। हशमत प्राय: “पाकिस्तान एक्स-रेड” शीर्षक के अंतर्गत ऑर्गेनाइजर में लिखा करते थे। कई वर्ष हो गए और मेरे पास उनका कोई समाचार नहीं है, परन्तु मैं अपना वचन नहीं भूल पाया। मुझे हैरानी होती है कि मैं आज से बीस वर्ष पूर्व मैं क्या लिखता था और मुझे यह भी हैरानी होती है कि अगर मैं और बीस वर्ष प्रतीक्षा करता हूँ, तो यह कहानी कैसा आकार लेगी। मुझे तो यह भी नहीं पता है कि आज इसका क्या मूल्य है। इन सबसे पश्चात भी मैं यह लिखने के लिए उत्प्रेरित हुआ हूँ क्योंकि आज के भारत में सिर्फ जन्म से हिंदू होना पर्याप्त नहीं। हिंदू समाज और संस्कृति पर कई ओर से आक्रमण हो रहा है। इन हमलों का सामना करने और अस्तित्व में रहने के लिए एक आश्वस्त और जागरूक हिंदू होना अनिवार्य है। हमें सनातन धर्म में अपनी जड़ों को तलाशना होगा।
मेरा जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ था, अर्थात मैं जन्म से हिन्दू था परन्तु जब मैं बाइस वर्ष की उम्र में विश्वविद्यालय से बाहर आया तब तक मैं हिंदू ना रहकर एक मार्क्सवादी और आतंकवादी नास्तिक बन गया था। मैं यह मानने लगा था कि यदि भारत की रक्षा करनी है तो सभी हिन्दू ग्रंथों को जलती चिता में फेंक देना चाहिए।
पंद्रह वर्ष लग गए मुझे यह देखने में कि यह पराकाष्ठा एक उत्तेजित दंभ का विस्फोट ही थी। आत्म-विषाक्तता के उन वर्षों के मध्य मैं यह विश्वास कर बैठा था कि मैं इस सृष्टि के अनुपातों को और तात्विक रूप से खोज रहा हूँ।
यह भी एक अपवाद से भरी कहानी नहें है कि कैसे मेरा दंभ एक ऐसे बिंदु पर पहुंचा, जहाँ मैं स्वयं द्वारा निर्मित मानसिक निर्माण से परे कुछ नहीं देख सकता था। यह हम में से कई लोगों के साथ होता है। मेरी कहानी में जो प्रासंगिक है वह है, अपने ही बुने हुए मकड़ी के मकड़जाल को तोड़ने की चाहत, पीड़ा और संघर्ष। आगे बढ़ते हुए मैं सूत्रों को जोड़ता रहूंगा।
मेरी अभिरुचियाँ सामान्य बच्चों से कुछ अलग हैं, मुझे कुछ अलग प्रकार से अनुभव होता है, यह मुझे तब अनुभव हुआ जब मैं आठ वर्ष का था। मेरा परिवार कोलकाता में रहता था। मेरे पिता जूट के सामानों के बाज़ार में एक दलाल के रूप में एकदम विफल रहे थे। परन्तु वह एक महान कथाकार थे। उन्हें शायद ही एक शिक्षित व्यक्ति कहा जा सकता था क्योंकि उन्होंने गांव के एक विद्यालय में सिर्फ दो-तीन साल ही बिताए थे। पर उन्होंने अपनी युवावस्था में कथा और कीर्तनों में भाग लेकर बहुत सारी पारंपरिक विद्याओं को आत्मसात किया था। हिंदू पौराणिक कथाओं, महान नायकों और संतों के जीवन के बारे में उनका ज्ञान विपुल था।
एक शाम उन्होंने मुझे महाभारत की लंबी और जटिल कहानी सुनानी शुरू की। यह कथा एक महीने से अधिक समय तक चली, प्रत्येक किस्त एक घंटे या उससे अधिक समय तक चलती। मैंने हर घटनाक्रम और उपाख्यान को बड़े तन्मयता और कौतूहल से सुना। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती गयी, उसके कुछ पात्रों की शक्ति और सामर्थ्य ने मुझे दैनिक जीवन की उथलपुथल से दूर कर दिया और मुझे उन अमर पात्रों के निकट कर दिया।
महाभारत अब तक कि मेरी सबसे प्रिय पुस्तक रही है। मैं इसे सबसे महान रचना के रूप में मानता हूं। इस पुस्तक को मुद्रित रूप में पढ़ने की मेरी आकांक्षा के कारण कुछ वर्ष पूर्व मुझे एक बहुत मजेदार स्थिति से होकर गुजरना पड़ा था। मैं हरियाणा में अपने गांव में पांचवी कक्षा का छात्र था। एक उर्दू पत्रिका मासिक किस्तों में महाभारत का शब्दशः अनुवाद प्रकाशित कर रही थी। हमारे गांव में इसके एकमात्र ग्राहक, प्रथम विश्वयुद्ध के एक सेनानिवृत्त बुजुर्ग थे। परन्तु उन्होंने इस श्रंखला को अपने बैठक (अध्ययन कक्ष) में बंद कर रखा था और ज़िद में उन्हें अपने ही बेटे को भी पढने के लिए देने से मना कर दिया था, जो मेरे सहपाठी थे। हम दोनों बैठक में उनके आने जाने के समय का हिसाब रखने लगे। फिर मौका पाकर छत से रोशनदान के रास्ते उनके बैठक में जाते, एक के बाद एक किश्तें पढ़ते और उन्हें वापस उनके मूल स्थान पर रख देते। इस चोरी का कभी पता ही नहीं चला।
महाभारत में जिस चरित्र ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह निश्चित ही श्री कृष्ण थे। उनके महान शब्दों और कार्यों ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया। बाद के वर्षों में यह प्रशंसा और भी गहरी हो गई जब तक कि इस प्रशंसा ने एक पूजा और भक्ति का रूप नहीं ले लिया। उनका पावन नाम अलौकिक मंत्र बन गया। श्री कृष्ण महाभारत की नींव, मध्य और शीर्ष हैं। मानव मस्तिष्क में श्री कृष्ण ही सत्य, सौंदर्य, अच्छाई और शक्ति का सर्वोच्च प्रतीक हैं।
परन्तु मुझे तब बहुत ही दुखद आश्चर्य हुआ जब गांव के एक बुद्धिमान व्यक्ति ने आल्हा उदल के साथ महाभारत की समानता की और चेतावनी दी कि इन दोनों कहानियों के कथन के कारण हमेशा झगड़े और खून खराबे हुए हैं। मैंने आल्हा उदल को भी पढ़ा है। पूरे बावन सामरिक प्रकरणों को मातृलाल अत्तर ने ध्वन्यात्मक पदों में प्रस्तुत किया है। और मुझे लगता है कि तुलना बिल्कुल सतही है और विशुद्ध रूप से एक अंधविश्वास है। उत्तर भारत में हिंदुओं ने लंबे समय तक महाभारत की उपेक्षा की है। उत्तर भारत में प्रचलित मानस मन में महाभारत के आल्हा उदल से बराबरी करने का जो तथ्य आया है वह एक महान बौद्धिक और सांस्कृतिक पतन का द्योतक है।
अपनी कहानी पर लौटते हुए, कोलकाता में रहते हुए मैंने एक और शक्तिशाली धार्मिक ग्रन्थ पढ़ा, जो था श्री गरीबदास द्वारा रचित ग्रन्थ साहब। हरियाणा के यह जाट संत, हमारे परिवार के सबसे बड़े संरक्षक संत तब से रहे हैं जब से हमारे ही परिवार के एक पूर्वज संत के समकालीन रहे थे और अट्ठारहवीं शताब्दी के प्रथम उत्तरार्ध में संत के शिष्य बन गए थे। हम उन्हें सतगुरु (सच्चे शिक्षक) के रूप में सम्मान देते हैं, जो परमात्मा के अवतार थे। यूं तो वे पूरी तरह से अनपढ़ थे परन्तु उन्होंने बहुत ही उदात्त कविता के अठारह हज़ार श्लोकों की रचना की और गाया, जो उच्चतम आध्यात्मिक ऊंचाइयों का स्पर्श करते हैं। कहानी यह है कि मेरे वह पुरखे तब तक पानी भी नहीं पीते थे जब ता वह हमारे गाँव से चार मील दूर रहने वाले संत के दर्शन नहीं कर आते थे।
मेरे पिता बड़ौदा से प्रकाशित हुए श्री गरीबदास के ग्रंथ साहिब के पहले मुद्रित संस्करण की एक प्रति हासिल करने में सफल हो गए थे। वे अक्सर मुझे और मेरी मां को ग्रंथ साहिब में उल्लेखित साखियों और रागों में उल्लेखित संत और भक्तों के जीवनी को, अपनी टिप्पणियों के साथ, पढ़कर सुनाते थे। मैं भी कभी-कभी इस ग्रंथ के पन्ने उलट कर देखा करता था। उन गूढ़ संदेशों को समझने के लिए मेरा मानसिक स्तर इतना विकसित नहीं था। परन्तु कबीर, नानक, रविदास, दादू, नामदेव, चिप्पा, पिपा और धन्ना जैसे कुछ महान संतों की कहानियों ने मेरे मन को बहुत प्रभावित किया था जैसे कि राबिया, मनसूर, अधम सुल्तान, जुनैद, बायाज़िद और शम्स तबरेज जैसे प्रसिद्ध मुस्लिम सूफियों की कहानियाँ। यह कहानियाँ आने वाले समय में स्थाई सत्संग का रुप लेने वाली थीं।
उस साल कोलकाता में रहने के दौरान मैं पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन के संपर्क में भी आया। नमक आन्दोलन के समय में यह एकदम चरम पर था। देश का माहौल महात्मा गांधी और भारत माता के नारों से भरा हुआ था। नीमतल्लाह शमशान भूमि की ओर जाते हुए,जतिंद्र नाथ दास की शवयात्रा में लोगों के हुजूम को देखकर मैं फूट-फूट के रोया था। उनका यह बलिदान भगत सिंह के सर्वोच्च बलिदान के तुरंत बाद हुआ था। मैं अब इस बात से परिचित हो चला था कि मेरा देश स्वतंत्र नहीं था। मेरी मां ने मुझे बताया कि सात समंदर पार सिंहासन पर बैठी एक रानी द्वारा हम पर शासन किया जा रहा है। उनके लिए इतिहास महारानी विक्टोरिया के दिनों से ही रुक गया था।
हमारे ग्रामीण क्षेत्र में कांग्रेस का आंदोलन कभी मजबूत नहीं था, जहां श्री छोटूराम के ज़मीनदारी संगठन का प्रभुत्व था। परन्तु आर्य समाज आंदोलन अपने साथ सब कुछ ले चला था। गांव के लगभग सभी महत्वपूर्ण पुरुष आर्य समाजी थे, जिनमें आधा दर्जन स्वतंत्रता सेनानी भी सम्मिलित थे जो देश के लिए जेलयात्रा कर चुके थे। आर्य समाजी प्रचारकों और गीतकारों ने हमारे गांव का बहुत बार दौरा किया। मैं इन सत्रों में भाग लेने के लिए बहुत उत्सुक था, कई बार देर रात में भी। उनके व्याख्यान और भजन से मैंने राष्ट्रवाद में अपना पहला पाठ सीखा। इस राष्ट्रवाद की बात, हालांकि ब्रिटिश शासकों के खिलाफ नहीं बल्कि मुस्लिम आक्रमणकारियों और महमूद गजनवी, मोहम्मद गोरी, अलाउद्दीन खिलजी और औरंगजेब जैसे अत्याचारों के खिलाफ थी। राष्ट्रीय नायक पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, बंदा बैरागी और भरतपुर के राजा सूरजमल थे। ये सभी, महाभारत के नायकों और श्री गरीबदास के ग्रंथ साहिब के सदस्यों के साथ, मेरी धार्मिक चेतना का हिस्सा बने।
गांव में मेरे युवा दिनों के,आर्य समाज के तीन मुख्य विषय थे, जिनमें उन्होंने अपने कार्यक्रमों का सबसे बड़ा हिस्सा मुसलमानों, सनातनवादियों और पुराणों को समर्पित किया। मुसलमानों को ऐसे लोगों के रूप में चित्रित किया गया जो किसी भी उस चीज को करने में मदद नहीं कर सकते थे जो कि अस्वाभाविक या अनैतिक थी।
सनातनवादी ब्राम्हण अपने कर्मकांडों के कारण मानवता के सबसे बड़े शत्रु थे। तथा सनातनियों द्वारा लिखे गए पुराण ही हर अंधविश्वास के स्रोत थे एवं वह हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों के लिए उत्तरदायी थे।
मैंने मुस्लिम आक्रमणकारियों और राजाओं को छोड़कर किसी भी मुस्लिम से कभी दुश्मनी महसूस नहीं की। हमारा घर मुस्लिम तेलियों के इलाके में था। उनमें से अधिकांश में शंकर और मोहन जैसे हिंदू नाम थे। वे होली और दिवाली में भी भाग लेते थे। केवल उनकी महिलाऐं, गांव की हिंदू महिलाओं के विपरीत, पजामा (सलवार) पहनती थीं। मेरे मुस्लिम पड़ोसी सौम्य, शांत बेबाक और बहुत मेहनती लोग थे। हम उन्हें चाचा और दादा कहकर बुलाते थे और हम उनकी महिलाओं को चाची और दादी के रूप में संबोधित करते थे। उनके समुदाय के एक बुजुर्ग सदस्य, जो एक निर्जन हिंदू हवेली (बड़ा घर) में अकेले निवास करते थे, एक बहुत ही प्यारे चरित्र के व्यक्ति थे। मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता जब कोई इनके धर्म के आधार पर इन मुसलमानों के बारे में कोई कठोर टिप्पणी करता था, जो अक्सर होता नहीं था।
ना ही मैंने ब्राह्मणों के प्रति अपना सम्मान खोया। हमारे गांव में उनमें से कुछ काफी विद्वान थे। कुछ अन्य ने, गरीबी के बीच भी अपने गरिमापूर्ण आचरण से लोगों से सम्मान प्रेरित किया।इन आदरणीय और सम्मानित लोगों में से कोई भी आर्यसमाजी नहीं था। वहीं दूसरी ओर हमारे गांव में आर्य समाज के अध्यक्ष काफी संदिग्ध चरित्र थे। वह कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे। उनके जघन्य कृत्यों में से एक अत्यंत जघन्य कृत्य था, जिसपर उन्हें बहुत गर्व था और वह था गांव के मंदिर के गर्भगृह में शौच करना। मैं हमेशा उनसे दूरी बनाए रखता। कई बार जब मैं गांव के किसी गली में एक तरफ से उन्हें आते देखता तो मैं पीछे मुड़ कर वापस चला जाता।
परन्तु मैंने पुराणों और सनातनवादियों के आर्यसमाजी निंदा को बहुत गंभीरता से लिया। मेरे मस्तिष्क में उनकी छवि एकदम नष्ट एवं अनैतिक हो गयी।
कबीर और नानक की निर्गुण परंपरा के एक संत श्री गरीबदास के प्रभाव के कारण, मेरे परिवार में पारंपरिक सनातनवाद नहीं था। हमारे परिवार की महिलाएं कुछ व्रत रखती थीं, वह कुछ अनुष्ठान करती थीं और वह मंदिरों एवं शिवलिंगों के दर्शन करने जाती थीं। परन्तु हमारे परिवार के अधिकतर पुरुष मूर्ति पूजा की निरर्थकता के विषय में जानते थे और प्राय: किसी भी अनुष्ठान में भाग नहीं लेते थे। ब्राह्मण पुजारी हमारे घर में शादी और मृत्यु जैसे अवसरों को छोड़कर नहीं आते थे। हमारे परिवार में जो सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन होता था, वह था एक सप्ताह तक हमारे घर में गरीबदासी साधुओं द्वारा ग्रन्थ साहब का पाठ, जो हमारे घर में एक सप्ताह तक रहते थे। मुझे बहुत स्पष्ट रूप से याद है कि मैं अपने ही निर्गुण सिद्धांतों को लेकर कितना उदासीन था और मैं उन सनातनवादी परिवारों के अपने सहपाठियों को कैसे नीची नज़र से देखता था, जिनकी परम्पराओं को मैं हेय दृष्टि से देखता था। मैं विशेष रूप से उनके पास के गांव में देवी के वार्षिक उत्सव की सभा में जाने को बिल्कुल पसंद नहीं करता था। मेरे लिए भगवान एक दोस्त व्यक्ति थे। देवी पूजा का अर्थ था मेरे लिए अपने सच्चे धर्म से विचलन करना।
आज भी जब मैं पुराण से, अपने पहले सामने की बात सोचता हूं तो हंसे बिना नहीं रह पाता। श्रीमद्भागवद् हमारे गांव में ज्ञात और उपलब्ध एकमात्र पुराण था। मुझे इसे पढ़ने की तीव्र उत्कंठा थी। परन्तु मुझे हमेशा डर था कि मेरी चोरी पकड़ी जा सकती है। वर्षों बाद जब मैंने गांव छोड़ दिया और दिल्ली के एक स्कूल में दाखिला लिया तब मैंने स्थानीय हरिजन आश्रम से श्रीमद्भागवद् की एक प्रति उधार ली और चुपके से घर ले आया। जब मैं इसे पढ़ रहा था तो मैं इस बात के लिए बहुत सावधान था कि कोई मुझे देख ना ले और इस बात को बाहर फैला दे। मुझे यह बिल्कुल भी प्रतिकारक नहीं लगा हालांकि मुझे कुछ कहानियां अत्यधिक अतिरंजित लगीं। परन्तु कुल मिलाकर इस ने मुझे प्रभावित नहीं किया। महाभारत के श्री कृष्ण की मेरे दिमाग पर मुहर लग गई थी। मैंने उन्हें भागवद् में गायब पाया। गोपियों के साथ उनकी लीलाओं ने मुझे उनसे दूर कर दिया। हालांकि बाद में मैंने जाना कि पुराण, वैदिक आध्यात्मिकता के भवन का एक एकीकृत भाग है जिसका एक चमचमाता गुम्बद महाभारत है।
आर्य समाज में मेरी रुचि मुझे हमारे गांव में स्थापित नए हरिजन आश्रम के संपर्क में ले आई। मैं पहले से ही दिल्ली में एक हाई स्कूल का छात्र था। गर्मी की छुट्टियों के दौरान गांव में एक मित्र ने मुझे एक सहभोज (भोज खाने) में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया, जिसमें हरिजनों को हिंदुओं को मीठे चावल परोसने थे। मैं हरिजन आश्रम में गया और उस सभा को देखा जिसमें व्यवहारिक रूप से हमारे गांव के सभी तेजस्वी और दिग्गज व्यक्ति शामिल थे। हालांकि मैंने भोजन नहीं किया क्योंकि हरिजन जो चावल परोस रहे थे और हिंदू जो इसे खा रहे थे, गर्मी की उस दोपहर में पसीने से तरबतर हो रहे थे। परन्तु जब मैं बाहर आया और कुछ रूढ़ीवादी लोगों द्वारा पूछने पर, कि क्या मैंने चमारों द्वारा परोसा हुआ भोजन खाया है, मैंने उससे इनकार नहीं किया। मैं मन ही मन ये कामना कर रहा था कि काश मेरी सफाई की आदतों ने मुझे वह करने से रोका नहीं होता जो मैं सही और उचित समझ रहा था।
शायद यह अपराधबोध ही था जो मुझे कुछ दिनों बाद फिर हरिजन आश्रम में वापस ले गया। वहां के प्रभारी व्यक्ति मेरी ही जाति के सदस्य थे और एक अनुभवी स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने जेल में लंबा समय बिताया था। वह बहुत सख्त थे और श्रद्धापूर्वक हरिजन उत्थान के लिए समर्पित थे । कोई भी उनसे ऐसी किसी भी बात पर चर्चा नहीं कर सकता था, जिसमें वह हरिजन की समस्या न डाल दें। उन्होंने मुझ पर एक गहरी छाप छोड़ी,हालांकि उन्हें गुस्सा बहुत आता था और वह हर चीज़ के प्रति असहिष्णु थे, जिसकी जड़ें महात्मा गांधी तक नहीं जाती थीं। उन्हें कुछ हरिजन लड़कों की देखभाल करते हुए देख कर अक्सर संदेह होता था कि महात्मा गांधी के प्रति उनकी निष्ठा संभवतया उनकी प्राथमिकता नहीं थी, बल्कि हरिजन उत्थान उनके लिए अधिक प्राथमिक था।
इन्हीं सज्जन ने मुझे बताया कि महाभोज का आयोजन आर्य समाज द्वारा नहीं बल्कि महात्मा गांधी के हरिजन उत्थान आंदोलन द्वारा किया गया था। और तब मैं आश्चर्यचकित हुआ और वास्तव में चौंक गया जब उन्होंने मुझे बताया कि महात्मा गांधी एक आर्य समाजवादी नहीं थे बल्कि एक सनातनी थे। वे स्वयं आर्यसमाजी से महात्मा गांधी की उपासना और विचारधारा में रूपांतरित थे । इस रहस्योद्घाटन ने मुझे बड़ी दुविधा में डाल दिया। आर्य समाज के बारे में मेरा ज्ञान गांव के उसके प्रचारकों द्वारा बताए गए ज्ञान से परे नहीं था। महात्मा गांधी के सिद्धांत के बारे में भी मेरा ज्ञान अभी पूरा नहीं था परन्तु मुझे यकीन था कि सनातनवादी होना कुछ अपकीर्तिकर था। महात्मा गांधी जैसा महान व्यक्ति सनातनवादी कैसे हो सकता है? फिर भी उनके प्रति मेरे मन में पूरी श्रद्धा थी। मैंने कई साल तक उनकी जीत के नारे सुने और लगाए भी।
यह भी संयोग ही था कि यह दुविधा अगले कुछ दिनों में, बिना मेरे कोई महान बौद्धिक प्रयास के, हल हो गई। मेरा एक साथी, जो मुझसे कम उम्र का था, वह सत्संग के लिए रोज आता था, उसने मुझे सत्यार्थ प्रकाश उन कई पुस्तकों में से एक है जो उसने हमारे जिला शहर के स्कूल पुस्तकालय से उधार ली थी। आर्य समाज की इस महान कृति की प्रतियां हमारे गांव के निजी घरों में और दिल्ली के पुस्तकालयों में, आसानी से उपलब्ध थीं। परन्तु मेरे दिल में कभी भी इसे पढने के लिए कोई रूचि पैदा नहीं हुई थी। आज अचानक मैं इसका अध्ययन करने और यह जानने के लिए उत्सुक था कि यह पुस्तक किस बारे में है।
आज इतने सालों बाद मुझे यह याद नहीं कि सत्यार्थ प्रकाश के द्वारा कई विषयों पर दिए गए उनके विचार-विमर्श पर मेरी प्रतिक्रिया क्या थी परन्तु मुझे ये ज़रूर याद है कि कबीर और नानक के बारे में उनकी टिप्पणी को पढ़ते हुए मुझे बहुत गहरा झटका लगा था। यह दो सबसे पवित्र नाम थे जिन्हें मैंने अपनी पहली धार्मिक चेतना के समय से पढ़ा था और आत्मसात किया था। मैं ने निष्कर्ष निकाला कि स्वामी दयानंद का दृष्टिकोण इन महान संतों के प्रति अनावश्यक रूप से निर्दयी था और उनका सोचने का तरीका गलत था। उस समय के लिए मेरे लिए आर्य समाज का अंत हो गया। वर्षों बाद जब मैंने श्री अरबिंदो के बंकिम, तिलक और दयानंद का अध्ययन किया तो मैंने अपना शीश पश्चाताप में झुका दिया एवं मेरे दिल में एक ऐसे निडर सिंह जैसे व्यक्ति के प्रति श्रद्धा का पुनर्जन्म हुआ जिसने हिंदुओं के बीच वैदिक दृष्टि को बचाने और पुनर्जीवित करने की पूरी कोशिश की। इसके साथ ही, हमारे राष्ट्रीय जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर आर्य समाज ने जो महत्वपूर्ण सांस्कृतिक भूमिका निभाई, मेरे हृदय में उसके प्रति सच्ची समझ और सराहना उत्पन्न हुई।
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