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Friday, March 29, 2024

अफगानिस्तान में गुरुद्वारा थाल साहिब से सिखों का पवित्र झंडा तालिबान द्वारा हटाया जाना

एक ओर भारत में सिख हिन्दुओं और भारत के प्रति अपनी नाराजगी दिखाते हुए इस्लाम के साथ खुद को अधिक जोड़ रहे हैं, तो वहीं वह इस्लामिक देश अफगानिस्तान में उन गुरुद्वारों के लिए भी तरस रहे हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्व था।  ताजा मामला अफगानिस्तान में गुरुद्वारा थाल साहिब से सिखों का पवित्र झंडा हटाने का है। यह गुरुद्वारा सिखों के लिए इसलिए भी बहुत महत्व रखता है क्योंकि यहाँ पर गुरु नानक देव भी आ चुके हैं।

रिपोर्ट्स के अनुसार अफगानिस्तान में तालिबान ने पकतिया प्रांत में पवित्र गुरुद्वारा थाल साहिब की छत पर लगे हुए सिखों के पवित्र धार्मिक झंडे को हटा दिया है। हालांकि हमेशा की तरह तालिबान ने इस आरोप का खंडन कर दिया है।

बीबीसी के साथ काम करने वाले रविन्द्र सिंह रोबिन ने ट्वीट करते हुए लिखा कि

निशान साहिब, जो सिखों का धार्मिक झंडा होता है, उसे तालिबान ने गुरुद्वारा थाल साहिब की छत से उतार दिया है।

उल्लेखनीय है कि एक पिछले ही वर्ष एक अफगान हिन्दू सिख निदान सिंह सचदेव का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया था।

रविन्दर सिंह ने यह भी ट्वीट किया कि भारत सरकार के सूत्रों के अनुसार भारत सरकार भी इस बात की निंदा करती है, कि  पकतिया प्रांत में पवित्र गुरुद्वारा थाल साहिब की छत पर लगे पवित्र झंडे को तालिबान ने हटा दिया है। अफगानिस्तान का भविष्य वह होना चाहिए जहाँ पर सभी अल्पसंख्यकों और स्त्रियों दोनों के अधिकार सुरक्षित रह सकें।

हालांकि शाम होते होते यह भी रविन्दर सिंह ने ट्वीट कर दिया कि सिखों के धार्मिक झंडे को छत से हटाकर पेड़ से बाँध दिया था और उसका अनादर किसी ने नहीं किया था। अब वह कल सुबह फिर लग जाएगा। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि एक अफगान हिन्दू नानकपंथी निदान सिंह ने दावा किया कि निशान साहिब को पिछले पंद्रह दिनों से तालिबान के डर के कारण छत से हटा दिया था।

हालांकि स्थानीय मुस्लिम इस झंडे का आदर करते हैं, मगर फिर उन्होंने कहा कि तालिबान से उन्होंने यह अपेक्षा नहीं की थी।

यह झंडा तो लग जाएगा, पर यह अवश्य ध्यान देने के जरूरत है कि अफगानिस्तान में कितने सिख और हिन्दू थे और कितने हिन्दू और सिख शेष रह गए हैं। एक समय में हिन्दू भारत का अभिन्न अंग रहे अफगानिस्तान में, अब ऊँगली में गिने जाने लायक हिन्दू शेष हैं। वर्ष 2016 में tolonews में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 1980 में जहाँ अफगानिस्तान में लगभग दो लाख के करीब सिख और हिन्दू हुआ करते थे वह इस्लामी कट्टरपंथ के बढ़ते ही घटकर तीन दशकों में मात्र 1350 तक रह गए थे।

महाभारत और रामायण में गांधार और कैकेय देश का जो वर्णन है अब वह प्रांत एकदम उसके विपरीत उजाड़ है।  जिस प्रांत में आज हिन्दू खोजे नहीं मिलते हैं और लड़कियों को बहर नहीं निकलने दिया जाता है, कौन कहेगा कि कभी वहां पर स्वतंत्र स्त्रियाँ हुआ करती थीं।

हिन्दुओं को हर बात के लिए उत्तरदायी ठहराने वाले और हिन्दुओं को कोसने वाले कभी ऐतिहासिक तथ्यों पर दृष्टि नहीं डाल पाते हैं कि जिन जिन स्थानों से सनातन मिटा, वहां से धार्मिक सहिष्णुता मिटती चली गयी। अफगानिस्तान से जैसे जैसे हिन्दू हटा, वैसे ही स्त्री स्वतंत्रता का भी लोप हो गया। यह एक बेहद हैरान करने वाली बात है कि कोई भी वाम लिबरल (कट्टर इस्लामी) कभी भी इस विषय में स्वयं से प्रश्न नहीं करता कि आखिर उनकी हिन्दू धर्म से एकतरफा नफरत कितनी हानि पहुंचाती है, वह सभ्यता को ही नष्ट करने पर तुल गए हैं। वह यह नहीं देख पा रहे हैं कि अफगानिस्तान में मजहबी कट्टरता ने हिन्दुओं और सिखों को उन्ही के पुरखों, उनके इतिहास की भूमि से भागने के लिए विवश कर दिया।

आखिर ऐसी क्या विवशता है कि वह सुदूर अमेरिका में “ब्लैक लाइव्स मैटर्स” का नारा लगाने के लिए अपनी फेसबुक वाल भर देते हैं, पर मजहबी कट्टरता के सम्मुख रोज़ दम तोड़ रहे हिन्दू और सिख प्राण उनके लिए कुछ नहीं हैं, वह चर्चा तक नहीं करते?

आखिर वह स्वतंत्र क्यों नहीं हो पाए हैं? उनकी प्रगतिशीलता इस्लाम की गुलाम क्यों है? और वह भी कट्टर इस्लाम की? यह प्रश्न बार बार अनुत्तरित है! और वह इस दया पर क्यों निर्भर हैं कि औरंगजेब ने मंदिर तोड़े थे तो क्या बनवाने के लिए पैसा भी तो दिया था, हालांकि उसका प्रमाण वह नहीं देते हैं. इसी प्रकार वह तालिबान द्वारा दिखाई गयी तनिक दया से प्रसन्न हो जाते हैं, “अरे वह इतने बुरे भी नहीं हैं!” दरअसल प्रगतिशील लोग अभी तक सुल्तानों के गुलाम हैं और उसके बाद अंग्रेजों के गुलाम हैं और वह उसी गुलामी में सभी को बाँध लेना चाहते हैं!


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