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Friday, March 29, 2024

भगवान परशुराम: भगवान विष्णु के छठवें अवतार

भगवान विष्णु ने गीता में कहा है कि जब जब धर्म की हानि होती है, तब वह अवतार लेते हैं। एवं धरती की समय समय पर रक्षा के लिए विभिन्न अवतार लेते रहे हैं। जब जब भी मानवता ने कातर होकर रक्षा के लिए पुकार लगाई है, तब तब भगवान श्री विष्णु ने उनकी पुकार सुनी है, और उन्होंने स्वयं आकर दुष्टों का नाश किया है।  जब त्रेतायुग में पृथ्वी उन क्षत्रियों के अत्याचारों से त्रस्त हो रही थी, जो अपने धन, जन एवं यौवन से उन्मुक्त बने हुए थे।

पृथ्वी की गुहार सुनते हुए भगवान विष्णु ने “भगवान परशुराम” को आज्ञा दी कि जब तक चौदह कलाओं से पूर्ण भगवान श्री राम का अवतार नहीं होता, तब तक आप दुष्ट क्षत्रियों का दमन करें। एवं भगवान विष्णु ने उन्हें अपना दिव्य धनुष भी प्रदान किया था एवं कहा था कि इसकी सहायता से ही आप मेरे रामावतार को पहचान सकेंगे। *(श्री ब्राह्मण सभा, पठानकोट द्वारा रचित भगवान परशुराम जी का संक्षिप्त जीवन वृत्त)

भगवान परशुराम जी के पितामह श्री ऋचीक ऋषि उन भृगु ऋषि के पुत्र थे, जिन्होनें मानव जाति को मनु स्मृति के अनुसार चलने की आज्ञा दी थी

“एतद्वोयं भृगु शास्त्रं श्रावयिष्य्त्यशेषत:

एतद्यी मत्तोधिजगे सर्वमेषो खिलंमुनी: (मनुस्मृति 1/59)

भगवान विष्णु के दशावतार में छठवां अवतार हैं भगवान परशुराम, जिनकी जयन्ती अक्षय तृतीया को मनाई जाती है।

जन्मकथा:

भगवान परशुराम जी की जन्मकथा भी अनोखी ही है। उनके पितामह ऋचीक ऋषि का विआह गाधि राज की पुत्री सत्यवती के साथ हुआ था। एक बार भृगु ऋषि अपने पुत्र ऋचीक ऋषि एवं अपनी पुत्रवधु से मिलने के लिए ऋषि ऋचीक के आश्रम में आए एवं उनके पुत्र एवं पुत्रवधु दोनों ने उनका सत्कार किया। भृगु ऋषि अत्यंत प्रसन्न हुए एवं उन्होंने अपनी वधु से कोई वरदान मांगने के लिए कहा। इस पर सत्यवती ने इच्छा प्रकट की कि वह और उनकी माता दोनों ही पुत्रवती हों।

ऋषि भृगु ने पुत्र कामना हेतु दो चरु बनाए एवं सत्यवती से कहा कि यह दो चरु हैं, एक उनकी माँ के लिए और एक सत्यवती के लिए। सत्यवती के लिए जो चरु है, उसे खाने के बाद उन्हें तपोनिष्ठ बालक उत्पन्न होगा और उनकी माता के चरु से महान वीर धनुर्धारी क्षत्रिय बालक उत्पन्न होगा। परन्तु उनकी माता ने अपनी पुत्री के साथ चरु को बदल लिया। भृगु ऋषि यह जान गए एवं उन्होंने अपनी पुत्रवधु से कहा कि यह उचित नहीं हुआ। अब सत्यवती के गर्भ से उग्र, क्षत्रिय कुल संहारक पुत्र उत्पन्न होगा और उनकी माता के गर्भ से शांत, तपस्वी, ब्राह्मण गुण से युक्त ब्रह्मर्षि पुत्र उत्पन्न होगा। यह सुनते ही भयभीत सत्यवती ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि उन्हें क्षमा किया जाए एवं उनके गर्भ से ब्रह्मर्षि पुत्र ही उत्पन्न हों, पौत्र अवश्य उग्र हो जाए।

महर्षि भृगु ने कहा ऐसा ही हो और फिर सत्यवती ने जमदग्नि को एवं उनकी माता ने महर्षि विश्वामित्र को जन्म दिया।  जमदग्नि का विवाह राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका से हुआ एवं रेणुका के गर्भ से परशुराम सहित चार अन्य पुत्रों का जन्म हुआ।

माता का वध एवं पुनर्जीवन:

परशुराम जी ने गधमादन पर्वत पर तपस्या कर महादेव को गुरु रूप में वरण किया। महादेव ने अपने परम शिष्य को नाना प्रकार के अस्त्र एवं महान कुठार प्रदान किया, जिसके चलते वह अद्वितीय वीर बने।

एक दिन महर्षि जमदग्नि की पत्नी रेणुका स्नान के लिए नदी तट पर गईं एवं वह वहां पर मार्तिका देश के राजा चित्ररथ को अपनी रानियों के साथ जल क्रीडा करते हुए देखकर मोहित हो गईं, उसी मोहित अवस्था में जब वह आश्रम आईं तो जमदग्नि को क्रोध आया एवं उन्होंने अपने चारों पुत्रों को आदेश दिया कि वह अपनी माता का वध कर दें। परन्तु चारों ही पुत्रों ने ऐसा नहीं किया जिसके कारण जमदग्नि ने उन्हें अचल कर दिया।  और जब परशुराम से कहा तो उन्होंने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया।

महर्षि जमदग्नि ने आज्ञाकारी पुत्र के इस कार्य से प्रसन्न होकर वरदान मांगने के लिए कहा तो उन्होंने वरदान मांगे कि उनकी माता जीवित हो जाएं, और इस घटना को भूल जाएं एवं उनके भाई पिता के श्राप से मुक्त हो जाएं, परशुराम रणभूमि में अजेय बनें एवं दीर्घायु हों। उन्हें यह चारों वर प्राप्त हुए।

क्षत्रियों का विनाश:

महर्षि परशुराम की कीर्ति से हैहय वंश का सहास्त्रार्जुन चिढ़ गया था, अत: एक दिन वह उनकी अनुपस्थिति में आश्रम आया और कामधेनु के बछड़े को ले गया। जब परशुराम आए और उन्होंने अपने आश्रम की यह स्थिति देखी तो वह कुपित हुए और उन्होंने घमासान युद्ध के बाद रणभूमि में ही उसका वध कर डाला।

उसके प्रतिशोध में सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने जमदग्नि के आश्रम में आक्रमण करके तीखे शस्त्रों से उनकी हत्या कर डाली। जब परशुराम ने अपनी माता को विलाप करते हुए देखा तो उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वह 21 बार समस्त पृथ्वी के दुष्ट क्षत्रियों का विनाश करेंगे एवं पृथ्वी ब्राह्मणों को दान करेंगे।

फिर उन्होंने सबसे पहले सहस्त्रबाहु के पुत्रों को यमलोक पहुंचाया एवं बाद में असंख्य क्षत्रियों का नाश किया।  21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने के बाद उन्होंने महर्षि कश्यप को पृथ्वी दान कर दी।  महर्षि कश्यप ने भगवान परशुराम से कहा कि अब वह उनके राज्य से दक्षिण की ओर समुद्र के किनारे चले जाएँ। क्योंकि वह जानते थे कि धरती का संचालन करने के लिए क्षत्रियों की ही आवश्यकता होगी।

राम एवं परशुराम की भेंट:

जब भगवान विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया तो राम द्वारा शिव धनुष को तोड़ने के बाद उनकी भेंट प्रभु श्री राम से होती है। एवं जब राम एवं लक्ष्मण पर उनके बल का कोई प्रभाव नहीं होता है तो वह समझ जाते हैं कि यही वही राम हैं, जिनके विषय में उन्हें पूर्व ज्ञात था।

महाभारत काल में परशुराम:

महाभारत काल में भी भगवान परशुराम जी ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। उन्होंने दो योद्धाओं को प्रशिक्षण प्रदान किया था। एक थे गंगापुत्र भीष्म एवं दूसरे योद्धा थे सूर्य पुत्र कर्ण।  इस युग में उन्हें अपने शिष्य से भी भीषण युद्ध करना पड़ा था।  काशी राजकुमारी अम्बा के साथ हुए अन्याय को लेकर उन्होंने अपने ही शिष्य परशुराम को युद्ध के लिए ललकारा था, जबकि यह स्थापित तथ्य था कि दोनों ही एक दूसरे के लिए अवध्य थे। अत: युद्ध का कोई परिणाम न निकलने पर गंगा माता ने ही परशुराम जी से प्रार्थना करते हुए कहा था कि इस युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकलेगा क्योंकि आप दोनों ही एक दूसरे को न ही पराजित कर सकते हैं और न ही वध कर सकते हैं।

अत: परशुराम जी को अपने अस्त्र रखने पड़े थे एवं भीष्म ने विनम्रता से अपने गुरु के चरणों में प्रणाम किया था। परशुराम भगवान ने अपने प्रिय शिष्य को सदा युद्ध भूमि में अजेय रहने का वरदान दिया था।

कर्ण द्वारा असत्य बोलकर अस्त्र शिक्षा प्राप्त करने पर उन्होंने कर्ण को श्राप दिया था, इसी श्राप ने महाभारत के विनाशकारी युद्ध में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

इसी के साथ उनके एक शिष्य थे द्रोणाचार्य! जिन्होनें पांडवों एवं कौरवों को अस्त्र-शस्त्र प्रशिक्षण प्रदान किया था। यह भगवान परशुराम जी की वीरता ही थी, जिसने इस युद्ध में हर ओर पराक्रम प्रदर्शित किया।

भगवान परशुराम वीरता के पर्याय हैं। उन्होंने अन्याय के सम्मुख सिर न झुकाने के लिए प्रेरित किया।

यद्यपि समय के साथ उन्हें भी आलोचना के घेरे में लाया जाने लगा, परन्तु किसी विशेष युग के व्यक्ति की प्रशंसा एवं आलोचना उस काल की परिस्थिति के अनुसार की जानी चाहिए.  भगवान परशुराम जी का चिरंजीवी होना यह दर्शाता है कि उनकी आवश्यकता हर युग में होगी, कल भी थी, एवं आज भी है तथा आगे भी रहेगी!


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