अक्सर हिन्दू लड़कियों के इस्लाम की ओर आकर्षित होने की बात होती है, उन्हें कोसा जाता है, उन्हें गालियाँ भी दी जाती हैं, पर उसके मूल में जाने का प्रयास कम होता है। इसका एक जो सबसे महत्वपूर्ण कारण है, जिसके कारण लडकियां इस्लाम की तरफ आकर्षित होती हैं वह है उर्दू को प्यार की भाषा बनाकर पेश करना और कथित प्यार की नज्में आदि उर्दू में लिखी गईं जो कथित रूप से अमर हो गईं, उन शायरों को प्यार का मसीहा माना जाने लगा जिन्होनें प्यार की ग़ज़लें लिखीं, जबकि जो संस्कृत निष्ठ हिंदी में लिखी गयी कवितायेँ थीं उन्हें जानबूझकर अनदेखा किया गया। आज भी जश्न ए रेखता जैसे आयोजनों में भारी भीड़ होती है, और इश्क की जुबां उर्दू को सुनने के लिए लाखों की संख्या में लडकियां जाती हैं। जब वह अमन और प्यार जैसे चाशनी में लिपटे हुए शब्दों को सुनकर आएंगी तो उनके दिमाग पर क्या असर होगा?
पहले प्यार और मोहब्बत की नज्में होती हैं जैसे
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
बशीर बद्र
अब उर्दू का आधार ही फारसी है तो शब्द भी वहीं से आए हैं, और इस प्रकार की बगावत करने वाले एक ही मज़हब के हैं तो उनकी नज्मों में खुदा, अल्लाह जैसे शब्दों का आनाजाना जाहिर है। जैसे अमीर मीनाई की पंक्तियाँ ही देखें तो
कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं
नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है
जबकि बगावती ग़ज़ल दुष्यंत ने भी कम नहीं लिखीं, बल्कि भारतीय भूमि पर दुष्यंत से बड़ा क्रांतिकारी ग़ज़ल लिखने वाला हुआ भी नहीं है, मगर पास दुष्यंत की ग़ज़लें रूमानी क्रान्ति पैदा नहीं करती। वह रोटी की बात करती है, जरा देखिये एक बानगी
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ ।
दुष्यंत की यह पंक्तियाँ किसी भी आन्दोलन के लिए आवाज़ हो सकती हैं,
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
मगर दुष्यंत हल की बात करते हैं, अराजकता की नहीं, इसीलिए उन्हें अनदेखा किया जाता है, वह हिमालय की बात करते हैं, वह गंगा का प्रतीक लेते हैं, जो अब आउटडेटेड है। वह कहते हैं
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मगर दुष्यंत को एक तरफ कर दिया जाता है क्योंकि वह यह नहीं कहते कि बुतों को गिराया जाए!
वह झूठी मोहब्बत का दिलासा नहीं देते। वह अदावत में भी भारतीयता जोड़े रहते हैं, जबकि जो अधिकतर यह उर्दू शायरी है जिसमें सारे प्रतीक और बिम्ब एक मज़हब विशेष के हैं, जो जाहिर है कि अपने अलावा हर मजहब के खिलाफ हैं, वह युवा पीढ़ी पर असर डालता है। लडकियां क्या लड़के दोनों ही प्यार मोहब्बत के जाल में फंसते हुए खुदा खुदा करने लगते हैं कि खुदा हो या भगवान एक ही है। और जैसे ही यह भावना भीतर आती है वैसे ही वह संस्कृत को उर्दू के बगल में लाकर खड़ी कर देती हैं। वह हमारी देव वाणी को उस भाषा की सहोदरी बना देती है जिसने रूप भले ही भारत से लिया मगर बुनियाद यहाँ की नहीं है।
और कई शेर तो ऐसे हैं जो सीधे सीधे विद्रोह के बारे में बात करते हैं, मगर वह इस तरह रूमानियत में लपेट कर बात करते हैं कि लड़कियों को जरा भी बुरा नहीं लगता। जैसे साहिर लुधियानवी का यह शेर
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
इसमें जो जुल्म है वह जुल्म देखना चाहिए कि यह जुल्म कौन कर रहा है? एक और इतिहास रहा है मुस्लिम क्रांतिकारी शायरों का कि इन्होनें अपने मज़हब की कट्टरता के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई है! और यदि इक्का दुक्का उठाई भी हों तो उन्हें अब याद नहीं करता कोई। जब वह लोग ज़ुल्म के खिलाफ खड़े होने की बात करते है, तो वह यह नहीं कहते कि जुल्मी कौन है? जुल्मी वह है जो बुत बनाता है, जुल्मी वह है जो उनकी स्त्रियों के माथे से हिजाब उतारने की कोशिश करता है, जुल्मी वह नहीं है जो उनकी औरतों को काले बुर्के में दबाकर रखता है और उन्हें पूरी ज़िन्दगी तीन तलाक के साए में घिरे रहने के लिए विवश करता है। वह बहुत ही नफासत से हमारी लड़कियों को हमारे खिलाफ खड़ा कर देते हैं। हमें उनके अनुसार जुल्मी और ज़ुल्म की अवधारणा समझनी होगी।
अब लड़कियों के दिमाग में बैठ जाता है कि यह तो अमनपसंद लोग हैं, प्यार मोहब्बत की बातें करने वाले हैं, यह लोग बुरे कैसे हो सकते हैं, जो यह कह रहे हैं, वह सच ही है, और ऐसे में वह उन भ्रामक बातों का शिकार होती हैं जो पूरी तरह से उनकी संस्कृति के विरोध में खडी होती हैं जैसे हफ़ीज़ जालंधरी की यह पंक्तियाँ:
‘हफ़ीज़‘ अपनी बोली मोहब्बत की बोली
न उर्दू न हिन्दी न हिन्दोस्तानी
इसमें बहुत ही चतुराई से जिस भाषा में लिखा गया है उसे मोहब्बत की बोली बनाकर पेश कर दिया गया और बाकी सब को? ऐसा नहीं है कि सभी ग़ज़लें खराब हैं या प्यार मोहब्बत की बातें करना गलत है, पर जब आप एक ऐसी भाषा से प्यार करने लगते हैं और उसके गुलाम बन जाते हैं जिसके माध्यम से आप पर वार होता है और आपके धर्म पर वार होता है तो आप कई बार अपनी भाषा से दूर हो जाते हैं। ‘
जब लिखा जाता है कि
बस नाम रहेगा अल्लाह का,
और इस नज़्म को क्रांतिकारी नज़्म बताया जाता है तो ऐसे में उसे गाने वाले समझ नहीं पाते कि गलती उनसे कहाँ हो रही है?
जब उनके दिमाग में पीर एक संत हो गया तो औरंगजेब को जिंदा पीर पढ़ा ही है, फिर शिवाजी उनके आदर्श कैसे होंगे? कैसे वह शम्भा जी के दर्द को महसूस कर पाएंगी और कैसे वह ताराबाई के नेतृत्व कौशल को समझ पाएंगी? सब कुछ शब्दों का खेल है। जब बुत गिराकर क्रान्ति होनी ही है तो कश्मीर के टूटे हुए मंदिरों पर कैसे रोएंगी? इस मीठे जहर को समझना ही होगा!
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