वर्ष 2005 की शुरुआत कांग्रेस के लिए जश्न मनाने का समय था. पार्टी को अभी-अभी भाजपा के नेतृत्व वाले राजग (NDA) पर लोकसभा के चुनावों में अप्रत्याशित विजय प्राप्त की थी. कांग्रेस के साथी दल डीमके एवं वामपंथियों ने अपने राज्यों में शानदार सफलता प्राप्त की थी.
सोनिया गाँधी कांग्रेस पर अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर चुकी थी तथा किसी भी छोटे साथी दलों की कोई विशेष महत्वाकांक्षा नहीं थी. उन्हें विशेष क्षेत्रीय रियायत देकर, उनके खिलाफ मुकदमों को शिथिल करके, और उन्हें भरष्टाचार के मौके दे कर शांत किया जा सकता था.
ऐसा लग रहा था जैसे कि वाजपेयी के अधीन हिंदुत्व एजेंडे वाले ‘काले दिन’ सच में समाप्त हो गए थे. हालांकि एक संकट मंडरा रहा था जिसके तुरंत निदान की आवश्यकता थी. कांग्रेस तंत्र के कूटनीतिज्ञों ने महसूस किया कि भाजापा के शासनकाल में ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ के आधारभूत सिद्धांतों को असीमित क्षति पहुँची है – वह सिद्धांत था राज्य द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में सांप्रदायिक अधिमान को प्रोत्साहन.
‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ को अदालती आघात
भारतीय राज्य अपनी स्थापना के प्रारम्भ से ही शिक्षा के विषय से कई बार गुत्थम गुत्था कर चूका था, पर हर बार विफलता ही हाँथ लगी. 90 के दशक मैं जो सवाल सबसे ज्यादा चिंतित कर रहा था वो ये था की किस तरीके से शिक्षा मैं निजी क्षेत्र के अत्यंत तेजी से होने वाले विस्तार को नियंत्रित किया जाये.
‘मोहिनी जैन एव उन्नीकृष्णन’ पर उत्सुकता से इंतजार हो रहे निर्णयों के श्रीन्खला के बाद ये पूरी तरह से स्पष्ठ हो चूका था की सरकार सिर्फ अपने बूते पर लोगों की शिक्षा की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती है तथा निजी शिक्षण संस्थाओं को ध्वस्त करने (मोहिनी जैन के मामले मे) के प्रयासों के परिणाम विपरीत ही होंगे.
इस वास्तविकता से सामना होने के बाद कई राज्य सरकारों ने निजी हथकंडो का इस्तेमाल करते हुए शिक्षा क्षेत्र के एक हिस्से को हड़प कर उनका इस्तेमाल अपने सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए करना शुरू कर दिया. तत्काल ही राज्यों के इन प्रयासों का आमना सामना अल्पसंख्यक मसले तथा फीस एवं क्रॉस सब्सिडी जैसे मुद्दों से हो गया। ऐसे और भी कई प्रश्नों का ढेर लग चूका था एवं हर कोई महसूस कर रहा था की इस पर तुरंत और निर्णायक फैसला हो जाना चाहिए.
संयोगवश उसी समय ऐसा ही एक मामला ‘टी.एम.ए पाई बनाम भारत गणराज्य’ सर्वोच्य न्यायालय पहुंचा. ‘केशवानंद भारती’ के मामले पर गठित तेरह जजों की पीठ के बाद दूसरी सबसे बड़ी ग्यारह जजों की पीठ इस मामले पर गठित हुई ताकि अल्पसंख्यक एवं शिक्षा सम्बंधित अन्य विवादों पर कोई ठोस एवं अंतिम निर्णय पर पहुँचा जा सके.
उम्मीद थी की यह बड़ी पीठ पूर्व मैं बनी ‘सेंट. जेविअर बनाम गुजरात सरकार’ मामले मैं बनी नौ जजों की खंडपीठ के दिए निर्णय के दबाब में नहीं आएगी. मैं ‘टीएमए पाई’ फैसले के ज्यादा विस्तार में नहीं जाऊँगा, इस मामले पर साल 2002 में फैसला आया. मोटे तौर पर अधिकांश मुद्दों पर 7-4 से विभाजित फैसला आया लेकिन चार असहमत जजों ने भी कई प्रश्नों पर अपनी सहमति जताई. फैसले का सबसे चौकाने वाला भाग ये था –
“अल्पसंख्यकों तथा गैर–अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित निजी संसथानो को बराबरी के दर्जे पर रखा गया. हिन्दू भी अब, संविधान की अनुभाग धारा 19-1(g) के तहत, उन सभी अधिकारों का बिलकुल वैसे ही लाभ उठा सकते थे जैसा अल्पसंख्यक कहीं पहले से संविधान की धारा 29/30 के तहत लाभ ले रहे थे.”
हमे अथवा पश्चिमी उदारवादी समीक्षकों को तो यह निर्णय अवरोधों से मुक्त करने जैसा प्रतीत होगा परंतु ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ के लिए तो ये किसी अभिशाप से किसी तरह कम नहीं था. इसका श्रेष्ठ प्रमाण थोड़े समय पहले हमें तब मिला जब फाली नरीमन ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक सम्मलेन में अपनी पीड़ा को कुछ इस प्रकार से प्रस्तुत किया –
“‘टीएमए पाई ‘पर अदालत का फैसला अल्पसंख्यकों के लिए किसी अनियंत्रित आपदा से कम नहीं था. मैं आपको बताता हूँ की क्यों? कोर्ट के निर्णय के कारण संविधान की धारा 30(धार्मिक एवं भाषाई अप्लसंख्यको को अपनी रूचि के अनुरूप निजी शिक्षण संस्थानों की स्थापना एवं सञ्चालन का अधिकार) को संविधान में ऊँचा स्थान प्राप्त था – वो या तो काफी नीचे स्थान पर आ गया ,या आने का खतरा बन गया था. इसे संविधान की धारा 19(1)(g) के समकक्ष ला कर खड़ा कर दिया था जो की मात्र भरण पोषण का अधिकार है. न्यायाधीश के कथनानुसार शिक्षण संस्थान को चलाना अन्य किसी व्यवसाय के बराबर है.”
स्रोत: Fali Nariman speech at the National Commission of Minorities
बेशक ये सवाल उच्च अथवा निम्न स्थान का नहीं है बल्कि इसे बाकी सबके समकक्ष करने का है. आप इसे इस तरह से क्यों नहीं देख सकते की बहुसंख्यकों को भी अब समकक्ष अधिकार प्राप्त हो गए हैं जो संविधान में सिर्फ अल्पसंख्यकों को धारा ३० के तहत प्राप्त हैं?
‘टीएमए पाई’ निर्णय के बाद भी प्रवेश परीक्षा, कैपिटेशन आदि मुद्दों ने बड़ी भारी भ्रम की स्थिति पैदा कर रखी थी.
‘इस्लामिक एकेडमी बनाम कर्नाटक’ मामले पर पाँच जजों के संवैधानिक पीठ का गठन हुआ. इसने भी एडमिशन से सम्बंधित मामलों पर अस्पष्टता को पूरी तरह से दूर नहीं किया. तब ‘पी ए इनामदार बनाम महाराष्ट्र’ विवाद पर सात जजों की एक और संवैधानिक पीठ का गठन हुआ ताकि अस्पष्टता को दूर किया जा सके.
अनेक प्रश्नों के उत्तर मिले – काफी प्रश्न छूट भी गए लेकिन अब स्थिति कुछ ऐसी थी की अल्पसंख्यकों और हिंदुओं में जो अत्याश्यक समानता स्थापित हुई थी वो इस फैसले के बाद भी बरक़रार रही. पहले ग्यारह फिर पाँच फिर सात जजों के तीन बड़ी पीठों के द्वारा निरिक्षण के बाद भी अल्पसंख्यकों और हिंदुओं द्वारा संचालित निजी शिक्षण संस्थानों में समानता की परिकल्पना अक्षुण्ण रही. निर्णायक शब्द थे..
“एस बी सिन्हा के मतानुसार, अल्पसंख्यक निजी शिक्षण संस्थानों को धारा 30(1) के तहत विशिष्ठ अधिकार प्राप्त हैं ; अल्पसंख्यकों एवं हिंदुओं को एक सामान अधिकार प्राप्त हैं. धारा 30(1) अल्पसंख्यकों को गैर–अल्पसंख्यकों के सामान अवसर देने के उद्देश्य हेतु मात्र कुछ अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करता है ताकि, भाषाई अथवा धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने वर्ग विशेष के हित में शिक्षण संस्थानों की स्थापना एवं संचालन को सुरक्षा प्राप्त हो.
ज्यादातर का मानना है कि संविधान की धारा 19(1)(g) द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अलावा धारा 30(1), अल्पसंख्यकों शिक्षण संस्थानों को गैर–अल्पसंख्यकों के शिक्षण संस्थानों के मुकाबले ‘विशेष अधिकार’ प्रदान करती है. परंतु ये साफ़ है कि एस बी सिन्हा के मतानुसार धारा 30(1) अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को ‘कुछ अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करती है’ न कि कोई विषेशाधिकार. इससे स्थिति में क्या अंतर पड़ता है ये हम थोड़ा रूककर देखेंगे.”
स्रोत: PA Inamdar v State of Maharashtra Aug 2005 – http://indiankanoon.org/doc/1390531/
अगस्त 2005 में पी ए इनामदार मामले पर अंतिम फैसला आया. किसी भी शंका से परे, अब ये साफ़ हो गया था की हिंदुओं को प्रदत समानता का सिद्धांत तीन तीन बड़ी संवैधानिक पीठों के निरिक्षणो के बाद भी अक्षुण्ण था. ये स्थापित हो गया था. ये निर्णायक था. ये भारत के लिए आगे बढ़ने का रास्ता था.
अब मुझे स्पष्ट है कि पारिस्थितिक तंत्र (ecosystem) इस पर गमगीन रहा होगा। अब कैसे सोनिया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार इन महाकाव्य निर्णयों को लाँघ कर अल्पसंख्यक वरीयता बहाल करेगी?
कांग्रेस ने ये मत बनाया की वे…. कांग्रेस ने महान भारतीय गणराज्य के संविधान को ही बदल दिया!
104 वें संवैधानिक संशोधन का जन्म हुआ
‘पी ए इनामदार’ के अगस्त 2005 के निर्णय के बाद, गैर सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों के लिए अल्पसंख्यकता के आधार पर मिलने वाली तरजीह के न्यायिक रास्ते बंद हो चुके थे. खेल ख़त्म हो चुका था. इस बदली हुई परिस्थिति की काट निकालने के लिए कांग्रेस सरकार ने अविलम्ब संवैधानिक संशोधन विधेयक लाने के लिए तीव्र गति से कदम उठाये. योजना ये थी –
- शासन को गैर सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों से एक हिस्सा छीनने की अनुमति दे दी जाए
- अल्पसंख्यकों को स्पष्ट रूप से इससे छूट दी जाए
- इस छूट को धारा 15(5) में स्पष्ट परंतु सांकेतिक शब्दों में डाला जाए
इस घोर विभाजक विधेयक की अगुवाई करने के लिए पार्टी हाई कमांड ने जिस व्यक्ति को चुना था वो कोई और नहीं अर्जुन सिंह थे -कांग्रेस के HRD मंत्री. उन लोगो ने तुरंत भारत के संविधान में अनुछेद 15(5) नाम की एक नयी धारा जोड़ दी –
93वें संशोधन द्वारा डाला गया संविधान का अनुच्छेद 15(5)
अल्पसंख्यकों को दी गयी छूट का भाजपा ने तुरंत विरोध किया, दुर्भाग्यवश ये बिल क्यों गलत था इस पर वो कोई तर्कसंगत कारण नहीं बता पाये, बल्कि वो अल्पसंख्यकों में पिछड़ों को उन्ही के संस्थानों में शामिल करने की मांग करने लगे.
याद रखिये, ये 2005 था, उस समय सोशल मीडिया नहीं था. मुख्य धारा (mainstream) मीडिया का सम्भाषण पर पूर्ण नियंत्रण था और हो सकता है कि उन्होंने भाजपा द्वारा जताई गयी असहमति को दबाने का निर्णय किया एवं अपने कुप्रचार को जारी रखने का फैसला किया. इसके बावजूद भी ऐसा लगता है की भाजपा ने लड़ाई लड़ी-भले ही नाममात्र के लिए लड़ी. हुआ यूँ:
- क्योंकि2014 के विपरीत 2004 ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ के लिए भारी विजय थी – कांग्रेस NDA के अंदर के जातिगत गुट का योजनापूर्वक लाभ उठाने पर काम कर सकते थे
- जदयू (JDU) ने आखिरी समय में एनडीए की पीठ में छुरा भोंक कर उसे असहाय कर दिया
- भाजपा का विरोध बहुत सैद्धान्तिक या अनवरत नहीं था. आखिर में भाजपा ने बिल के पक्ष में मत दिया और एक अलग संशोधन पेश किया जिसमे धारा 15(5) में अल्पसंख्यको को शामिल किया गया. जाहिर है, इसे परास्त कर दिया गया.
- यहाँ पर आप UPA के RTE जैसे ज्यादातर कानूनों को बीजेपी का अप्रत्यक्ष एवं अपमानजनक समर्थन का प्रतिमान (pattern) भी देख सकते हैं.
एससी/एसटी (SC/ST) पर असर
क्योंकि शैक्षणिक संस्थाओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा अल्पसंख्यकों के द्वारा संचालित है, यह बिल दलितों को कुलीन व्यावसायिक कॉलेज से अलग करके उन्हें हानि पहुँचाता है. उदाहरण के लिए- केरल में १८ मेडिकल कॉलेज में से १४ अल्पसंख्यको द्वारा संचालित किये जाते है.
यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि कांग्रेस पार्टी जो दलितों के लिए लड़ने का दावा करती है, वो ऐसा सिर्फ तभी करती है जब क्रिस्चियन के साथ टकराव न हो और कुछ हद तक मुस्लिम के साथ भी (सिर्फ इसलिए क्योंकि ईसाई मुसलमानो से कही ज्यादा शैक्षणिक संस्थाएं चलाते है).
सांसदों के एक समूह ने इस मुद्दे को उठाया और ऐसा लगता है कि एक प्रतिनिधि मंडल प्रधानमंत्री से भी मिला. ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें ये कह कर आखिरकार आश्वस्त कर दिया की उनकी चिंताओं का ध्यान रखा जाएगा. निस्संदेह, आज हम जानतें है कि असल में उनका किसी पर भी नियंत्रण नहीं था.
यह प्रयास असफल हो गया और दलितों को आज भी सहायता प्राप्त और गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों में आरक्षण/कोटा (quota) नहीं है. उम्मीद है कि उन दिनों इसमें शामिल रहे भाजपा के नेता अब खुल कर बोलेंगे. मीडिया में तो इस बारे में नाममात्र की जानकारी है.
आखिर में 22 दिसम्बर 2005 को 93 वां संशोधन पारित हो गया. भारत का संविधान बदल दिया गया एवं हिंदुओं को शिक्षा के विषय में दोयम दर्ज़े पर खड़ा कर दिया गया. विशाल बेन्चों के वर्षों की कोशिशो, दर्जनों वकीलों, हज़ारों घंटो कि बहसों को मिटा दिया गया. अल्पसंख्यकों का शिक्षा के मामले में वरीयता प्राप्त दर्जा पुनः स्थापित कर दिया गया था.
बिल की वैधता
हमे 93वें संशोधन को समझने की जरूरत क्यों है, इस बिंदु को उभारना भी मेरे इस लेख को लिखने के पीछे के कारणों में से एक है. इसके विस्तार का अच्छा संक्षिप्त विवरण इस ब्लॉग पर भी उपलब्ध है. स्वाभाविक रूप से 93वें संशोधन को अदालत में चुनौती तो मिलनी ही थी.
ओबीसी (OBC) कोटा केस में ‘अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत सरकार’ मामले की सुनवाई के दौरान, अदालत ने टिप्पणी करते हुए कहा की, 93 वें संशोधन को चुनौती देने वाली याचिका तब तक नहीं सुनी जा सकती, जब तक केंद्र सरकार 93वें संशोधन को आधार बना कर कोई कानून नहीं बनाती.
93 वें संशोधन के संविधान के ‘बुनियादी संरचना’ के विरुद्ध होने के जांचने का अवसर वर्ष 2010 में शिक्षा के अधिकार क़ानून(RTE) के रूप में आया. RTE एक ऐसा कानून था, जिसके तहत निजी शिक्षण संस्थाओं को अपने शिकंजे में कसने एवं जन्म से अल्पसंख्यक व्यक्तियों द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों को इससे छूट देने के लिए 93वें संशोधन के प्रावधानों का उपयोग किया गया था.
ये बात याद रहे की यह 25% का आंकड़ा मनमाना है, और इसके 49.5% तक बढ़ाने पर किसी तरह की कोई बंदिश नहीं है. हालाँकि इतना भी सहन से परे है. शुरुआत में एक पीठ ने RTE कानून को चुनौती देने वाली याचिका, ‘राजस्थान प्राइवेट स्कूल केस’ को सुना. पर वो इसके संवैधानिक सवालों से दूर रही, इसका मैँ सिर्फ अनुमान लगा सकता हूँ क्योंकि ये तीन जजों के छोटी बेंच थी.
अन्तोगत्वा, 2014 में RTE को चुनौती देने वाली याचिका पर पांच जजों के पीठ का गठन हुआ तथा मामले को नाम दिया गया ‘प्रमति एजुकेशनल & कल्चरल सोसाइटी’ – ऐसे और भी कई मामलों को इसमे शामिल कर लिया गया था.
9 मई 2014, मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के सत्ता में जबरदस्त वापसी के सिर्फ एक सप्ताह पहले – पांच जजों वाली पीठ द्वारा ‘प्रमति एजुकेशनल & कल्चरल सोसाइटी बनाम भारत सरकार’ मामले के निर्णय में ९३वें संविधान संशोधन को संवैधानिक मान्यता मिल गई.
स्रोत: http://indiankanoon.org/doc/32468867/
विदाई के बेला में भी ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ तंत्र अपने ताज़ रत्न की रक्षा मैं सफल हो गया था!
आज की परिस्थिति यही है.
93 वें संशोधन के दुष्परिणाम
93वें संशोधन के बाद शिक्षा में साम्प्रदायिकता ने अपनी गहरी जड़ें जमा ली हैं. अल्पसंख्यक कॉलेज समृद्धशाली होने लग गए और इसके विपरीत हिंदुओं द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों का कचूमर निकल रहा है. यहाँ तक की सरकारी सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक कॉलेज भी कोटा नियम से बहार हैं जबकि बिलकुल गैर सहायता प्राप्त हिंदुओं द्वारा संचालित संस्थानों पर भी कोटा के नियम लागू हो गए.
2014 के इस फैसले के बाद शिक्षा क्षेत्र का जो दृश्य बना है उसका सजीव चित्रण जनवरी 2014 के मद्रास हाई कोर्ट के निर्णय में परिलक्षित होता है. ‘Federation of Catholic Faithful vs State of Tamil Nadu, Jan 2014′
“ऊपर उद्धत किये गये फैसले की रोशनी में ये साफ़ है कि, अल्पसंख्यक कॉलेज में सहायता प्राप्त कोर्स में भी किसी भी प्रकार के सांप्रदायिक आरक्षण सम्बंधित कोई आदेश लागू नहीं होगा.“
अस्वीकरण
यह लेख‘रियलिटी चेक’ के मूल ब्लॉग का @Vishayak द्वारा हिंदी में अनुवाद है. इसे पहले इस ब्लॉग में प्रकाशित किया गया था: https://lalanagdawala.wordpress.com/
अँग्रेज़ी स्रोत: https://realitycheck.wordpress.com/2015/03/22/how-congress-pursued-its-invidious-legislative-agenda-post-win-in-2004-history-of-the-93rd-const-amendment/