अभी हाल में मैंने प्रोफेसर उमा नारायण की लिखी एक उत्कृष्ठ किताब पढ़ी जिसका नाम है डिसलोकेटिंग कल्चर्स (यानी, संस्कृतियों का विस्थापन), जिसमें उन्होंने इस ओर ध्यान आकर्षित किया है कि अमरीका भारत में होने वाली दहेज-हत्याओं में तो बड़ी रुचि लेता है, मगर अमरीका में लोगों द्वारा अपने जीवन-साथियों को मार देने की घटनाओं को इसी तरह कटघरे में नहीं खड़ा करता, हालाँकि अमरीका में अपने जीवन-साथियों द्वारा मारी जाने वाली महिलाओं का प्रतिशत लगभग उतना ही है जितना भारत में दहेज की शिकार होने वाली महिलाओं का है। प्रोफेसर उमा नारायण समझाती हैं कि इस विरोधाभास और विसंगति के कई कारण हैं: ‘दहेज-मृत्यु’ की शब्दावलि प्रारंभ से ही इतनी अधिक भारत केंद्रित है कि उससे मिलती-जुलती अमरीकी घटनाएँ किसी के भी ध्यान में तुरंत नहीं आ पाती हैं।
इस तरह प्रस्तुत कर दिए जाने के बाद, दहेज-मृत्यु के आँकड़े रखे जाने लगते हैं, विद्वत्ता के अनेक स्तरों पर उसका अध्ययन होने लगता है, और वह अपना खुद का एक जीवन प्राप्त कर लेता है। दहेज-मृत्यु के तुल्य अमरीकी समस्याएँ इस छानबीन से बच जाती हैं, विशेषकर इसलिए क्योंकि अध्येता अपने आपको एक ऐसे मंच पर बैठा लेते हैं जो समाज के उस स्तर से बहुत ऊँचा होता है जहाँ यह अमरीकी अपराध प्रायः होते हैं। इस पर विचार करते समय अचनाक मेरे दिमाग में यह विचार आया कि क्या जाति भी इसी तरह की कोई चीज़ है ? आखिर, हर समाज में स्तर होते हैं, समाज में अनेक संजातीय (एथनिक) समूह होते हैं। आधुनिक अमरीका में हम इन्हें ‘डेमोग्राफिक सेगमेंट’ (जनसांख्यिकीय खंड) कहते हैं। अमरीका में पाए जाने वाले इन जनसांख्यिकीय खंडों के कुछ उदाहरण हैं, ‘शहरों के भीतरी भागों में रहने वाले अफ्रीकी मूल के अमरीकी’, ‘ग्रामीण हिसपैनिक (हिस्पैनिक स्पेनी भाषा बोलने वाले उन लोगों को कहते हैं जो मूल रूप से दक्षिणी और मध्य अमरीकी महाद्वीप के देशों के निवासी हैं)’, ‘शहरों के बाहरी परिधि में रहने वाले श्वेत (सबर्बन वाइट)’, ‘एशियाई आप्रवासी’ आदि। ये सब उपभोक्ता वस्तुओं के विपणन में आम तौर पर उपयोग किए जाने वाले शब्द हैं। मुझे यह जानने में रुचि है कि ये जनसांख्यिकीय खंड भारत के बहु-चर्चित जातियों से कितने समान हैं। फिर भी जब अमरीका के संबंध में ‘जाति’ शब्द का प्रयोग किया जाता है तो लोग मुझे अजीब नजरों से देखने लगते हैं।
थियोडर डब्ल्यू. ऐलन की किताब द इन्वेन्शन ऑफ द वाइट रेस (अर्थात श्वेत जाति का आविष्कार) में आजकल ‘श्वेत’ कहे जाने वाले जनसांख्यिकीय समूह का प्रादुर्भाव कैसे हुआ है, इस पर एक रोचक दृष्टि डालती है। श्री ऐलन लिखते हैं: “[17वीं सदी तक] सफेद चमड़ी को मिलने वाले विशेषाधिकारों को न तो कानून की सम्मति थी न ही श्रम करने वाले वर्गों की सामाजिक प्रथाओं की। लेकिन अठारहवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में, बागानों वाले उपनिवेशों में नस्ल पर आधारित उत्पीड़न जायज हो चली थी, और अफ्रीकी अमरीकी इस उत्पीड़न तले और दो सदियों तक पिसने वाले थे…अफ्रीकी बंधुआ-मजदूरों को जंगम संपत्ति (यानी खरीदे-बेचे जा सकने योग्य संपत्ति) समझे जाने वाले गुलामों में बदल दिया गया और उन्हें उन्हीं की तरह के यूरोपीय मूल के श्रमिक वर्गों (प्रोलिटेरिएट) से अलग पहचाना जाने लगा। प्रसिद्ध बेकन विद्रोह में सभी नस्लों के विद्रोही श्रमिक वर्गों द्वारा दर्शाए गए भाईचारे से घबराकर, बागान मालिकों ने अपनी श्रम समस्या के निराकरण हेतु अपने और अफ्रीकी श्रमिक वर्गों के बीच निर्धन श्वेतों का एक बफर वर्ग खड़ा कर लिया। इन निर्धन श्वेतों को उपनिवेशी समाज में नाम मात्र के ही विशेषाधिकार प्राप्त थे, और इन विशेषाधिकारों में से मुख्य उनकी चमड़ी के रंग से जुड़ा था, जो उन्हें गुलाम बनाए जाने से बचाता था…श्वेत जाति का आविष्कार इसी तरह हुआ।”
अमरीका का रंग-विभेदन लोगों को श्रम की जिस श्रेणी में रखा गया था, उस पर आधारित था। इसे हार्वार्ड के एक व्याख्याता, नोएल इनेटिएव ने अपनी किताब हाउ द आइरिश बिकेम वाइट (अर्थात, आइरिश लोग श्वेत कैसे बने) में अधिक स्पष्ट किया है। वे दिखाते हैं कि किस तरह आइरिश लोग, जिन्हें सदियों से यूरोप की तलछट समझा जाता था, अमरीका आने पर अमरीकी समाज में प्रचलित श्रमिकों का रंग-विभेदन करने की प्रथा का उपयोग करके अपने आपको श्वेतों के रूप में वर्गीकृत कराने में कामयाब हुए। विशेषकर उन स्थानों में जहाँ गुलामों को मुक्त कर दिया गया था, वहाँ यह बहुत ही महत्वपूर्ण हो उठा कि यूरोप के आप्रवासी समूह इसे सुनिश्चित करा लें कि उन्हें ऐसे श्रम यूनियनों का रक्षण प्राप्त हो जाए जो नस्लीय रूप से अपवर्जक थे। काले लोग अक्सर बड़े-बड़े केंद्रीकृत परिवेशों में कारखाना मजदूर बन जाते थे, जबकि भवन-निर्माण से जुड़े काम, जैसे नलसाजी, बिजली का काम, मिस्तिरी का काम, बढ़ईगिरी, आदि यूरोपीय नस्ल के विशिष्ट श्रम यूनियनों के एकाधिकार बन गए।
एक अन्य रोचक किताब लॉस ऐंजेल्स के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कैरेन ब्रोडकिन की हाउ द ज्यूज़ बिकेम वाइट फोक्स (अर्थात, यहूदी कैसे श्वेत लोग बन गए), है। कैरेन स्वयं एक यहूदी महिला हैं। वे बयान करती हैं कि कैसे मात्र पिछले पचास सालों में ही यहूदी अमरीका की जाति-व्यवस्था की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे और अपने वर्तमान अवस्था को प्राप्त कर गए। यहूदियों ने ऐसा मुख्य रूप से कुछ विशिष्ट पेशों पर कब्जा जमाकर किया।
भारतीय जाति प्रथा काम के प्रकार के आधार पर उसी तरह विकसित हुई है जैसे अमरीका में किसी श्रम समूह द्वारा किसी विशेष पेशे के अपनाने से उपर्युक्त विशेष जनसांख्यिकीय खंड उभरकर सामने आए हैं। यही कारण है कि भारत की हर जाति का संबंध श्रम की किसी श्रेणी से है, ठीक उसी तरह जैसे किसी पेशे से जुड़े अमरीकी श्रमिकों के आधुनिक गिल्ड (मंडली), जो एक खास परिपाटी का अनुसरण करते हुए लोगों को सदस्यता प्रदान करते हैं और मंडली के बाहर के लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए रणनीतियाँ रखते हैं। भारत में यह विभेदीकरण स्थायी रूप ग्रहण कर गया क्योंकि जाति से सम्बन्धी पेशे का प्रशिक्षण पिता के साथ काम करते हुए (अर्थात अनुशिक्षण या एप्रेंटिसशिप के द्वारा) दिया जाता था, जिससे पारिवारिक वंश विशेषीकृत श्रम के वर्गों में बदल गए।
शायद प्राचीन समय के शासकों को श्रम के किसी श्रेणी के साथ सामूहिक रूप से समझौता करना अधिक आसान प्रतीत हुआ, बहुत कुछ उसी तरह जैसे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारत में जमीनदारों का एक वर्ग निर्मित किया ताकि करों की वसूली अधिक दक्षता से की जा सके। अमरीका के अधिकतर कानूनी फर्मों के मालिक यहूदी परिवार हैं। अधिकतर मोटलों के मालिक भारत से आए हुए गुजराती परिवार हैं। इस तरह के और भी अनेक उदाहरण हैं। समुदाय कुशलता, उत्कृष्टता और विशेषीकृत परिसंपत्तियों के केंद्रों की ओर विकास करते हैं। बुश और गोर दोनों ही राजनीतिक वंश हैं।
भाषा एक अन्य गुण है जिसे इसी तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में दिया जाता है, विशेषकर इसलिए क्योंकि भाषा सीखने का प्रयास छोटी उम्र से ही घरेलू परिवेश में शुरू हो जाता है। उच्चारण, बोलने का लहजा, मुहावरे, प्रयोग की चतुराई, और अधिकार के साथ पहले से मौजूद साहित्य का हवाला देना, इन सबके लिए भाषा पर असाधारण अधिकार प्राप्त करना जरूरी होता है। समय बीतने के साथ-साथ, भाषा के कुछ लहजे या शैलियाँ अभिजात वर्गों के साथ जुड़ जाती हैं। कोई किस तरह बोलता है यह सामाजिक ऊँच-नीच का निर्धारक बन जाता है। आधुनिक समय में, किसी की पुस्तकें कहाँ प्रकाशित होती हैं, यह मुख्य रूप से भाषा पर उस व्यक्ति के अधिकार पर, तथा उस व्यक्ति की सामाजिक हैसियत पर निर्भर करता है। प्राचीन भारत में अभिजात भाषा संस्कृत थी और आधुनिक विश्व में वह अँग्रेज़ी है। ठीक जिस तरह भारत में संस्कृत के प्रचलन का संबंध जाति से था, अँग्रेज़ी भी आज विश्व में एक जाति क्रमीकरण का आधार बन रही है।
एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि भारत में जाति को स्पष्टता के साथ परिभाषित किया गया, जबकि अमरीका के सामाजिक ढाँचे में संजाति (एथिनिसिटी) या पारिवारिक वंश अव्यक्त और अपरिभाषित रहते हैं। पर एक बात जिसकी ओर आजकल अधिक ध्यान आकर्षित नहीं किया जाता है, वह यह है कि भारत के स्मृति ग्रंथों में जाति सहित जिन अनेक विषयों का विवेचन हुआ है, वे उस खास कालखंड, स्थान और सांस्कृतिक संदर्भ के लिए विशिष्ट थे, और उन्हें स्मृतियों में कहीं भी सार्वभौव सत्य के रूप में पेश नहीं किया गया है, जो पत्थर में लिखी हुई अपरिवर्तनीय आदेश हों। वे स्वरूप में यूरोप के राजाओं के नियम-कानूनों के समान थे, जिनकी सत्ता केवल इन राजाओं के राज्यों तक सीमित होती थी। यही कारण है कि भारत में सैंकड़ों स्मृति ग्रंथ हैं जो अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग समयों के लिए रचे गए थे, जिनमें सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों को लिया गया है। कई स्मृतियाँ एक-दूसरे की बात काटती थीं और एक स्मृति किसी दूसरे का स्थानापन्न करती थी, ठीक उसी तरह जैसा हम मध्यकालीन यूरोप के सैकड़ों विधि-संहिताओं में पाते हैं।
अमरीकी जाति व्यवस्था के छुट्टे, अदृश्य और बहुधा इनकार किए जानने वाले अलिखित नियमों का एक लाभ यह है कि वे पत्थर की लकीरें नहीं बन जाते हैं। इसके विपरीत, स्पष्ट नियमों के अभाव में अमरीकी जाति व्यवस्था भुर-भुरी रह गई है और एक जाति से दूसरी जाति में खिसकना आसान है। उसका एक अन्य फायदा यह है कि वह स्थैतिक नहीं है और समय के साथ परिवर्तित हो सकती है। पर यह भी सच है कि प्रच्छन्न बीमारी खुले में नज़र आने वाली बीमारी से अधिक खतरनाक साबित हो सकती है, और अलिखित नियमों का प्रवर्तन मनमाने ढँग से हो सकता है। और, चूँकि इस जाति प्रथा का उपयोग करने वाले अधिकतर लोग उसके अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करते हैं, इस विषय पर ईमानदार चर्चाएँ चलाना और इस जाति व्यवस्था में सुधार लाना या उसे बदलना मुश्किल हो जाता है। आज अमरीका में यही स्थिति है। मैं चाहता हूँ कि भारत के बारे में पढ़ा रहे अमरीकी अध्यापक अपने ही छात्रों की छानबीन करके देखें कि भारत की सामाजिक संरचनाएँ आधुनिक अमरीका की सामाजिक संरचनाओं से कितनी समान हैं।
मेरा अनुभव यह रहा है कि भारतीय जाति प्रथा पर जो चर्चाएँ चलती हैं वे ‘दक्षिण एशिया’ की घिसी-पिटी लीक से हटकर कभी नहीं चलाई जातीं, और अधिकतर शिक्षित अमरीकियों को उनके समाज में प्रचलित जाति प्रथा दिखाई ही नहीं देती। दोनों के लिए एक ही शब्दावली प्रयोग इन दोनों में तुलना को अनिवार्य बना देगा।
ध्यान दें, ‘जाति’ शब्द भारत के लिए विशिष्ट नहीं है, क्योंकि जाति शब्द का अर्थ कुछ-कुछ ‘समुदाय’ निकलता है। ‘जाति’ उपनिवेशियों द्वारा चलाया गया शब्द है, और उसकी छानबीन करना आवश्यक है। क्या यदि भारत के आरक्षण संबंधी प्रयासों को वंचित श्रमिक वर्गों और जनसांख्यिकीय समुदायों की शब्दावली में परिभाषित करना अधिक फायदेमंद होगा, ताकि इन वर्गों में सदस्यों का आदान-प्रदान हो सके, यहाँ तक कि इस तरह के आदान-प्रदान को उकाया जा सके? मेरा विचार है कि जातियों की सामीओं को स्थैतिक और आनुवांशिक मान लेने से यह बेहतर होगा।
अमरीका की जाति प्रथा को समझना एशियाई अमरीकियों के लिए काफी महत्वपूर्ण है। भारतीय लोगों का स्वभाव अंतर्मुखी है, इसलिए उन्होंने बाकी दुनिया का ज्यादा अध्ययन नहीं किया है। पर पश्चिम के अंदरूनी कामकाजों को समझना महत्वपूर्ण है, भले ही इसका महत्व स्वयं अपने को बेहतर समझने तक सीमित क्यों न हो। हिंदू धर्म के शास्त्रीय पठन-पाठन में यहूदियों और ईसाइयों का वर्चस्व है। भारतीय दूसरों द्वारा उन्हें प्रस्तुत किए जाने को लेकर संतुष्ट हैं, पर वे बाद में तब शिकायत करने लगते हैं जब उन्हें जिस तरह प्रस्तुत किया जाता है वह समाज में प्रत्यक्ष रूप लेने लगता है – चाहे यह पश्चिम में बड़ा हो रहे उन्हीं के बच्चों पर अन्य पश्चिमी बच्चों का बढ़ता प्रभाव हो, या मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक भारतीय मूल के लोगों द्वारा गढ़ी गई उनकी सार्वजनिक छवि हो, या भारत में आक्रामक धर्म प्रचार हो।
पूर्वी एशिया ने अमरीका में अपनी ब्रांडिंग को बेहतर रूप से सँभाला है। एशिया सोसाइटी और अमरीका में मौजूद 30 से अधिक जापान द्वारा वित्त-पोषित जापन अध्ययन केंद्रों की बदौलत, और अमरीका में शिक्षक प्रशिक्षण पर खर्च किए जा रहे करोड़ों डॉलर की बदौलत, जिसमें अमरीकी शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाता है कि जापन के बारे में कैसे बच्चों को सिखाना है, जापानी मूल के अमरीकी अधिक क्षिप्रता से अमरीकी जाति व्यवस्था की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं। ध्यान दें कि 1980 के प्रारंभिक दशकों में जापान और जापानियों की निंदा करने वाली जो सामग्रियाँ अमरीकी मीडिया में धड़ल्ले से निकला करती थीं, वे अब रहस्यमय ढंग से गायब हो गई हैं। जाति उन्नयन की दौड़ में चीन का नंबर सभी एशियाई देशों में दूसरे स्थान पर है। उसने अभी 15 साल पहले ही अमरीका में अपना उच्च जातीय स्थान निर्धारित करने की मुहिम शुरू की है।
भारतीय मूल के अमरीकी व्यक्तिगत स्तर पर एक उच्च तकनीकी/पेशेवरीय जाति के रूप में तरक्की कर रहे हैं। भारतीय बौद्धिकों का एक छोटा वर्ग भी है जो अँग्रेज़ी भाषा में गंभीर विषयों पर लोकप्रिय किताबें लिख रहा है, जिन्हें काफी आदर के साथ पढ़ा जाता है। यह वर्ग छोटा है पर काफी दृश्यमान है। अक्सर इस दूसरे वर्ग का प्रशिक्षण पश्चिमी या मार्क्सवादी मानदंडों पर हुआ होता है, क्योंकि भारत के अँग्रेज़ी माध्यम पर आधारित शिक्षण तंत्र ने भारतीय महाकाव्यों, अर्थात रामायण और महाभारत, तथा संस्कृत भाषा के पठन-पाठन पर लगभग निषेध लगा रखा है। ये युवा भारतीय अक्सर अपनी ही विरासत के अधिक करीब आने से कतराते हैं, और इसके बजाए अपने-अपने माता-पिता से अलग हो जाने के बाद अपने आपको ‘दक्षिण एशियाई’ के रूप में नए सिरे से वर्गीकृत कराना पसंद करते हैं।
अमरीका में हिंदू अस्मिता पूरी तरह से तिरस्कृत और हाशिए पर धकेल दी जा चुकी है। मीडिया, शिक्षण तंत्र और सार्वजनिक क्षेत्रों में अक्सर हिंदू धर्म को नकारात्मक रूप से पेश किया जाता है। इसलिए, अनेक भारतीयों की कई अस्मिताएँ होती हैं, और वे मौके के अनुसार एक अस्मिता को सामने लाते हैं जो उस परिस्थिति के लिए सर्वोत्तम लाभ दे सकती है। एक हिंदू अमरीकी जो घर पर हिंदू देवी-देवताओं की पूजा करता है और हर संजातीय परिवेश में अन्य भारतीय मित्रों से मिलता-जुलता है, अक्सर काम पर जाते समय इस तरह के मेल-जोल के हर चिह्न को मिटा देता है। उत्तर-उपनिवेशवादी विचारकों ने इस व्यवहार को “भूरा होने का शर्म’ (ब्राउन शेम) नाम दिया है, जिसे हिंदुस्तानियों पर हावी होने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीयों में खूब फैलाया था।
लेकिन किसी भी विचारक ने हाल के एक व्यवहार पर विचार नहीं प्रकट किया है, जिसे मैं ‘हिंदू होने का शर्म’ नाम देता हूँ। खुलकर हिंदू होने को अक्सर एक शर्मनाक बात माना जाता है, ठीक उसी तरह जैसे 20वीं सदी के प्रारंभ में यूरोप में यहूदी होने को माना जाता था। हिंदुओं को इस विकृत रूप से देखने की प्रवृत्ति पिछले पाँच वर्षों में बढ़ी है, और उन्हें इस बात को लेकर चिंता रहती है कि कोई लेखक अपनी व्यक्तिगत अभिरुचि पर निर्भर करते हुए, उन्हें फासिस्ट, आतंकी, फिरकापरस्त, या अन्य इसी तरह के नकारात्मक लेबल से महिमामंडित न कर दे।
या तो हिंदुओं के कुछ ग्रंथों के कुछ टुकड़ों की संकीर्ण व्याख्या करके हिंदुओं को विश्व को नकारने वाली कौम के रूप में चित्रित किया जाता है, अर्थात यह कहा जाता है कि उन्हें दुनिया में जो हो रहा है उससे जरा भी मतलब नहीं होता, क्योंकि उनका धर्म एक तरह का पलायनवादी रहस्यवाद है। या, यदि उनके सामाजिक रूप से संल्गन होने को स्वीकारा भी जाता है, और इस तरह उन्हें दुनिया को नकारने वाले नहीं कहा जाता, तो उन्हें ऐसे लोगों के रूप में चित्रित किया जाता है जो महिलाओं और गरीबों का उत्पीड़न करते हैं, और जिनकी सामजिक प्रथाएँ मुख्यतः पिछड़ी हुई होती हैं। अन्य शब्दों में, हिंदू धर्म को इस तरह समझा जाता है कि उसमें इतने संसाधन नहीं है कि वह स्वंय सामाजिक दृष्टि से जिम्मेदाराना रूप से प्रगतिशील हो सके, जिस तरह बताया जाता है कि ‘तर्कशील’ पश्चिम है।
इस नई हिंदू अमरीकी जाति को ऊपर उल्लिखित अन्य अमरीकी जातियों की सफलता से सीखना होगा। यह विशेष रूप से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अनुमान है कि 2050 तक उनकी संख्या एक करोड़ तक पहुँचने वाली है, और इसके अलावा ऐसे अनेक गैर-भारतीय भी होंगे जो हिंदू धर्म को अपना लेंगे।
राजीव मल्होत्रा एक शोधकर्ता, लेखक और वक्ता हैं । उनसे संपर्क करने के लिए-:
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