हिन्दू धर्म में एक से बढ़कर एक महान संतों ने जन्म लिया है एवं जब जब हिन्दू धर्म कई कुरीतियों से घिरा है, तब तब हिन्दू धर्म से ही कोई ऐसे संत आए जिन्होनें हिन्दू धर्म को पुनर्प्रतिष्ठित किया। ऐसे ही एक महान संत थे आदि गुरु शंकराचार्य। उन्होंने हिन्दू धर्म को पुनर्गठित करने का कार्य उस समय में किया जब बाह्याडम्बरों एवं नए-नए सम्प्रदायों में फंसकर हिन्दू धर्म कराह रहा था।
आदि गुरु शंकराचार्य के पिता महादेव शिव के परम उपासक थे। शंकर-दिग्विजय ग्रन्थ के अनुसार शंकर स्वामी का जन्म मालावार प्रांत (केरल) के कालटी नामक ग्राम में हुआ था। कालटी गाँव में ब्राह्मणों का ही अधिक निवास था। आदि गुरु शंकराचार्य के पितामह का नाम विद्याधर या विधाधिराज था। यह नाम्बूरी ब्राह्मण थे। इस वंश में परम शिव भक्त एवं विद्वान् ही होते आए थे।
इनके पिता का नाम शिव गुरु था। वह वेदों एवं वेदांगों के प्रकांड विद्वान थे। अपने गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त उन्होंने गुरुआज्ञा से गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। परन्तु कई वर्षों तक जब उन्हें पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई तो उन्हें चिंताओं ने घेर लिया। फिर अपनी पत्नी के परामर्श के उपरान्त उन्होंने शिव की घोर साधना की एवं उनकी इस कड़ी तपस्या एवं आराधना से प्रसन्न होकर आशुतोष शिव ने उन्हें स्वप्न में वरदान दिया कि उनकी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।
परन्तु महादेव ने उनसे प्रश्न किया कि पुत्र तो दो प्रकार के मिल सकते हैं। एक तो ज्ञानी परन्तु अल्पायु एवं दूसरा अज्ञानी परन्तु दीर्घायु। शिवगुरु ने विनम्रता से कहा कि उन्हें ज्ञानी पुत्र चाहिए।
इस स्वप्न के उपरान्त उन्हें सही समय पर एक पुत्र की प्राप्ति हुई। तिथि थी वैशाख माह के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि एवं वर्ष था संवत 845। (शंकर दिग्विजय के आधार पर लिखित शंकराचार्य पुस्तक के आधार पर। लेखक उमादत्त शर्मा) उन्होंने उनका नाम रखा शंकर! उस समय संभवतया उन्हें भी यह ज्ञात न होगा कि उनका पुत्र एक ऐसा असम्भव कार्य करने आए हैं, जिसके लिए हिन्दू समाज उनका सदा ऋणी रहेगा। वह बिखरे एवं आहत हिन्दू समाज में नव प्राण फूंकने के लिए आए थे। जो लोग हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध या जैन सम्प्रदाय में चले गए थे, उन्हें वह वापस हिन्दू धर्म में लाने के लिए आए थे।
शंकर बाल्यकाल से ही अद्भुत एवं विलक्षण बालक थे। शंकर दिग्विजय के अनुसार आठ वर्ष की अवस्था में ही शंकर कठिन दर्शन शास्त्रों को समझकर व्याख्या करने लगे थे। आठ वर्ष की अवस्था में ही उनका उपनयन संस्कार हुआ। उनके पिता की असमय मृत्यु ने उन्हें वैराग्य की ओर जैसे धकेल दिया। वह सन्यास लेना चाहते थे। परन्तु माता की आज्ञा के बिना वह संन्यास नहीं ले सकते थे। न ही उनकी रूचि अच्छे भोजन में थी एवं न ही सुन्दर वस्त्रों में। वह बस वैराग्य के विषय में ही सोचते रहते।
फिर एक अद्भुत घटना के कारण वह सन्यासी बन गए। एक दिन वह और उनकी माँ नदी में फंस गए थे, एवं नदी का पानी उन्हें डुबो रहा था। उन्होंने अपनी माता से संन्यास की आज्ञा देने के लिए कहा। माता ने विवशता में हामी भर दी एवं देखते ही देखते नदी का वेग शांत हुआ एवं शंकर ने सन्यास ग्रहण किया।
फिर केरल से वह गुरु की खोज में आचार्य गोविन्दपाद (गोविन्दनाथ) के पास पहुंचे। वह शंकर की असाधारण प्रतिभा से प्रभावित हुए एवं बालक के तेज एवं मेधा के कारण उन्हें अपना शिष्य स्वीकार किया। उनके हृदय में हिन्दू धर्म के प्रति अपार श्रद्धा थी एवं यही कारण था कि गोविन्दपाद के गुरु गौड़पाद ने शंकर को देखकर कहा था कि हम जिस उद्देश्य की राह देख रहे हैं, यह बालक उसी उद्देश्य को पूरा करने आया है। गुरु ने उन्हें विधिवत सन्यासी की दीक्षा दी एवं उनका नाम रखा शंकराचार्य।
शिक्षा पूर्ण होने के उपरान्त शंकराचार्य ने वैदिक धर्म को पुनर्गठित करने का कार्य आरम्भ किया एवं वह इसी तत्व का प्रचार करने लगे कि एकमात्र सच्चिदानंद ब्रह्म ही सत्य है। शेष सब मिथ्या माया है।
जहां जहां वह यात्रा करते वहां वहां हिन्दू धर्म को मानने वालों में वृद्धि हो जाती एवं आत्मबल का संचार होता। वह धर्म प्रचार के साथ साथ जनता की चेतना को भी जागृत करते जा रहे थे। इसके साथ ही वह ग्रंथों की भी रचना करते जा रहे थे। इन्होने 23 ग्रंथों की रचना की। उन्होंने ईश, मुण्डक, माण्डुक्य। ऐतरेय एवं छांदोपनिषद आदि पर भाष्य लिखे। कैसा विराट रहा होगा एक संत का जीवन जो मात्र शास्त्रार्थ से ही अपने धर्म ध्वज को ऊंचा और ऊंचा करते जा रहे थे एवं आत्मग्लानियों को बहाते जा रहे थे!
आदि गुरु शंकराचार्य मात्र इस बात की घोषणा करते थे कि सत्य सनातन वैदिक धर्म ही वास्तविक धर्म है, एवं जिसे भी यह असत्य प्रतीत होता है वह शास्त्रार्थ करें। आदि गुरु शंकराचार्य ने पूरे भारत में अद्वैतवाद की पुनर्स्थापना की। काँची में इन्होनें राजा को अपनी विद्वता से प्रभावित किया तथा राजा ने वैदिक धर्म स्वीकार कर लिया। वैदिक धर्म के प्रचार के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने यहाँ पर दो वैदिक धर्म प्रचार केंद्र स्थापित किये। एक का नाम है विष्णु कांची रखा एवं दूसरे का नाम शिव कांची। आज भी यह दोनों केंद्र उपस्थित हैं।
अपने सम्पूर्ण जीवन में वह वैदिक धर्म के प्रचार के लिए समर्पित रहे। इनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण शास्त्रार्थ मंडन मिश्र के साथ किया गया शास्त्रार्थ माना जाता है, जिसमे विद्वान मंडन मिश्र के पराजित होने के उपरान्त उनकी पत्नी भारती ने शंकराचार्य के साथ शास्त्रार्थ किया था। परन्तु दोनों ही पति पत्नी शंकराचार्य के शिष्य बने।
आदि गुरु शंकराचार्य ने उत्तर से दक्षिण तक चार पीठों की स्थापना की, जिन्होंने इस भ्रम को तोडा है कि भारत एक राष्ट्र या इकाई के रूप में कभी नहीं था: यह पीठ हैं:– उत्तर दिशा में बद्रिकाश्रम में ज्योर्तिमठ, दक्षिण में श्रंगेरी मठ, पूर्व दिशा में जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन मठ और पश्चिम दिशा में द्वारिका में शारदामठ
मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में ही वह इस धरा को छोड़कर चले गए थे। क्योंकि उनके पिता के स्वप्न के अनुसार उनकी अल्पायु थी।
हिन्दू धर्म में संतों की जो परम्परा है, उसमें आदि गुरु शंकराचार्य ऐसे संत है जिन्होनें हिन्दुओं को आत्महीनता के बोध से मुक्त कराया। एवं हिन्दू धर्म को पुन: वह विराट एवं भव्य रूप वापस दिलाया जो आडम्बरों एवं नए सम्प्रदायों की भीड़ में कहीं खो गया था। चेतना के आकाश का विस्तार करने के लिए समय समय पर हिन्दुओं के मध्य महान आत्माएं देह रखकर आती रहती हैं। जो बार बार यह बोध कराती हैं कि संतों के साथ ही समाज का उत्थान संभव है।
दक्षिण से उत्तर तक यह हिन्दू धर्म ही है जो आपस में इस विशाल भूमि को एक सूत्र में बाँध सकता है और बार बार संत आकर यही कहते हैं
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