इन दिनों जब भारत एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें रोज ही नई चुनौतियां सामने आ रही हैं। मगर ऐसे में भी कुछ लोग हैं जो काला बाजारी करने से नहीं रुक रहे हैं। वह न केवल ऑक्सीजन सिलेंडर बल्कि रेमेडिसिवर इंजेक्शन की भी कालाबाजारी कर रहे हैं। बाज़ार में यह दोनों नहीं हैं, हाँ, जब ब्लैक में खरीदने की बात होती है तो यह तुरंत मिल जाते हैं। ऐसे ही अस्पतालों में बेड की बात है। अस्पतालों में बेड नहीं हैं, पर जैसे ही ज्यादा रूपए देने की बात होती है तो बेड उपलब्ध हो जाते हैं। यह क्या है? क्या यह चिकित्सीय आपदा के समय किया जाने वाला सही व्यवहार है ? या फिर हम यह मान कर चलें कि यही हमारा मूल चरित्र है?
एक और बात ध्यान देने योग्य है कि क्या कालाबाजारी मीडिया की नकारात्मक रिपोर्टिंग के आधार पर बढ़ रही है? यह प्रश्न इसलिए उभर कर आया है क्योंकि कल ही देश के कुछ मनोचिकित्सकों ने मीडिया के नाम पर एक खुला पत्र लिखा है जिसमें कई प्रश्न किए हैं, और जैसे कि क्या खबर चलाने से पहले पता किया कि कौन सी दवाइयों की जरूरत है? कब मरीजों को ऑक्सीजन की जरूरत होनी चाहिए? उन्हें कब अस्पताल जाना चाहिए? कितने प्रतिशत लोग घर पर ही रहकर ठीक हो गए? क्या कोई ऐसा संस्थान है जो उनकी मदद के लिए काम कर रहा है? क्या मानवीय विजय की कोई कहानियां हैं? ऐसे तमाम प्रश्न किए हैं। परन्तु सबसे महत्वपूर्ण जो बात उन्होंने कही है वह जमाखोरी को लेकर है। उन्होंने लिखा
“किसी खास वस्तु की कमी की रिपोर्टिंग करना एक सही बात हो सकती है, जिससे उसके विषय में कदम उठाए जाएं। मगर यह भी आवश्यक है की आखिर कमी कहाँ है बजाय इसके कि आप इसे वैश्विक कमी बता दें। चूंकि यह एक मानवीय मानसिकता है कि जितना ज्यादा कमी का शोर होगा उतना ही लोग उसे जमा करना शुरू कर देंगे। इससे और भी ज्यादा कमियों का एक चक्र बनता है और लोग पैनिक होने लगते हैं क्योंकि उन्हें जरूरत के समय चीज़ें नहीं मिली है।
मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर होने के नाते हम आपको यह बता सकते हैं कि कौन कौन सी सूचनाएं लोगों को सशक्त करती हैं और उन्हें किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार करती हैं। मगर पैनिक उन्हें कमज़ोर करती है।“
अब यह बहुत ही रोचक है! यह इसलिए रोचक है क्योंकि यह बात कहीं न कहीं सच के दायरे में आती है। इतना ही नहीं कई लोग ट्विटर पर प्रश्न उठा चुके हैं कि कहीं जानबूझकर पैनिक तो नहीं पैदा किया जा रहा है? और इसके कारण जरूरतमंदों तक इलाज ही नहीं पहुँच पा रहा है? यह प्रश्न इसलिए उभर कर आया है कि सोशल मीडिया और व्हाट्सएप पर कई समूह बन गए हैं, जो कथित रूप से ऑक्सीजन, रेमेडिसिविर और अस्पताल में बेड और प्लाज्मा की मदद का दावा कर रहे हैं। प्लाज्मा की मदद का दावा ठीक लगता है क्योंकि वह व्यक्तिगत है और किसी भी ऐसे व्यक्ति से लिया जा सकता है जो कोरोना से उबरा हो।
परन्तु ऑक्सीजन और रेमेडिसिवर? यह कैसे उन्हें मिल सकता है जो व्हाट्सएप और सोशल मीडिया पर शोर मचाकर मदद का दावा कर रहे हैं? प्रश्न यह उठता है कि जब अस्पतालों में ऑक्सीजन के सिलेंडर उपलब्ध नहीं हैं और न ही बाज़ार में उपलब्ध हैं, तो इन सोशल मीडिया इन्फ़्ल्युएन्सर को कैसे मिल रहे हैं? कैसे ऑक्सीजन दिल्ली के गुरुद्वारों में पहुँच रही है, पर अस्पतालों में नहीं? कैसे किसी न किसी से कथित सहायता के नाम पर ऑक्सीजन सिलिंडर मिलने पर लोग धन्यवाद दे रहे हैं? और अस्पतालों में ऑक्सीजन नहीं है और जब पुलिस छापा मार रही है तो काला बाजारी करने वाले पकड़े जा रहे हैं। और क्या इस खेल में रविश कुमार, विनोद कापड़ी और साक्षी जोशी जैसे पत्रकार एवं अशोक कुमार पाण्डेय जैसे लोग शामिल हैं, जो मरीजों का डेटा एक ग्रुप से दूसरे ग्रुप में भेज रहे हैं या फिर ट्वीट कर रहे हैं? क्या इनके ट्वीट ही पैनिक क्रिएट कर रहे हैं क्योंकि जो भी मेसेज एक वाल पर आता है, वही मेसेज सैकड़ों में शेयर होता है और फिर आवश्यकता होती है एक सिलिंडर की, मगर उसे मांगने वाले हो जाते हैं सौ! और इस सौ के चक्कर में जो असली जरूरतमंद है वह कही न कहीं खो जाता है! कई सोशल मीडिया यूजर अब यह कह रहे हैं कि केवल सोशल मीडिया पर हीरो बनने के लिए लोग डीएम तक पर दबाव डाल रहे हैं और जो असली स्वास्थ्यकर्मी हैं, वह परेशान हो रहे हैं।
इसी के साथ यह प्रश्न भी उठता है कि जो मेसेज आते हैं वह कितने सत्य होते हैं? क्या जितने भी मेसेज मदद के लिए सोशल मीडिया पर आए वह असली थे? वास्तविक थे? यह प्रश्न पत्रकार नितिन शुक्ला भी उठा चुके हैं।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य कर रहे कई लोगों से बात करने पर यह ज्ञात हुआ कि खेल काफी बड़ा है। क्योंकि यह बात सही है कि ऑक्सीजन की मांग एकदम से बढ़ी है और रेमेडिसिविर की भी, पर इसमें बहुत बड़ा हाथ मीडिया का भी है। उन्होंने कहा कि मीडिया की रिपोर्टिंग के कारण लोगों में डर बढ़ रहा है और इसके कारण लोग ऑक्सीजन सिलिंडर का भंडारण कर रहे हैं।
पिछले कई दिनों में पुलिस की कार्यवाही इन कालाबाजारियों पर जारी है और इनके कब्ज़े से कई सिलिंडर मुक्त भी कराए जा रहे हैं। इसके साथ ही कहीं न कहीं यह भी शक और गहराता जा रहा है कि बेड को लेकर भी कुछ खेल है, क्योंकि दिल्ली में जाली तरीके से कोविड 19 की रिपोर्ट बनवाई जा रही थी और साथ ही उत्तर प्रदेश में भी जाली कोविड रिपोर्ट बनाने वाले पकड़े गए थे।
Delhi: Two people arrested by Punjabi Bagh Police for black marketing of Oxygen cylinders. Four Oxygen cylinders and one large commercial Oxygen cylinder recovered from their possession. pic.twitter.com/3TdiifXEh3
— ANI (@ANI) April 28, 2021
मुम्बई में भी ऐसे ही कुछ लोग पकडे गए थे। पटना में एक न्यूज़ वेब के पोर्टल के ऑफिस से ही सिलिंडर की कालाबाजारी हो रही थी, इतना ही नहीं नॉएडा में अस्पतालों में वीआईपी लोगों के मरीजों के लिए बेड आरक्षित करके रखे हुए थे. वह वीआईपी कौन हैं, इसका भी खुलासा होना चाहिए!
एक और प्रश्न उठता है कि यदि किसी ने ऑक्सीजन सिलिंडर की मांग सोशल मीडिया पर की है तो यह कैसे पता चलेगा कि उसे घर पर जरूरत है या अस्पताल में? क्योंकि घर पर निगरानी करने के लिए तो कई तरह के नियम होते हैं? और एक मजे की बात यह है कि जितने भी लोग ऐसे मेसेज फॉरवर्ड कर रहे हैं, वह सत्यापित बिना करे फॉरवर्ड कर रहे हैं और एक से दूसरे ग्रुप में मेसेज जाता जा रहा है और चेन बनती जा रही है। क्या ऐसा नहीं होना चाहिए था कि जिन लोगों ने यह प्रक्रिया आरम्भ की वह पहले मदद मांगने वाले व्यक्ति का वह पर्चा मांगते जिस पर डॉक्टर ने यह दोनों चीज़ें या एक चीज़ लिखी हो?
आज देश में अस्पताल में ऑक्सीजन नहीं है, और काले बाज़ार में है, इंजेक्शन हजारों रूपए में बिक रहा है, तो इसके लिए क्या केवल व्यवस्था ही उत्तरदायी है? मीडिया की रिपोर्टिंग या सोशल मीडिया में बिना सत्यापित किए गए नंबरों का आदान प्रदान नहीं? क्या इनसे पैदा हुई मांग का ही इन कथित व्यापारियों ने फायदा नहीं उठाया? और सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि जो सिलिंडर बाज़ार में उपलब्ध ही नहीं है वह सोशल मीडिया के कार्यकर्ताओं के स्रोत को कैसे मिल रहा है?
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