आपसे यदि कोई पूछे कि ‘नबी-दिवस’ क्या होता है, तो आप में से शायद बहुत ही कम इसका उत्तर दें पायें। पश्चिम बंगाल के लोग भी कुछ वर्ष पूर्व तक इस दिवस को नहीं जानते थे। इसे बंगाल के लोगों नें तब जाना, जब टीऍमसी की सरकार सत्ता में आयी। मुस्लिम समाज ‘ईद-मिलाद उन नबी’ नाम के उत्सव को मनाता है, क्यूंकि इस दिन पैगम्बर मोहम्मद का जन्म हुआ था। और यही अब शासन के स्तर पर ‘नबी-दिवस’ के रूप में स्कूल-कॉलेजों के पुस्तकालयों में पूरी तय्यारी के साथ मनाया जाने लगा है।
इसके ठीक विपरीत विद्यालयों में सरस्वती-पूजा को लेकर अब धीरे-धीरे आपत्तियां उठाना शुरू हो गईं है। हावड़ा के सरकारी स्कूलों में पिछले ६५ साल से सास्वती-पूजा मनाई जा रही थी, वर्ग-विशेष की मर्जी पूरी करते हुए ममता-सरकार नें इस पर रोक लगा दी है। और तो और इस निर्णय के विरूद्ध सड़कों पर उतरे बच्चों पर पुलिस नें डंडे भी बरसाए हैं।
बीरभूम (वीरभूमि) जिले का कान्गलापहाड़ी ऐसे गाँव है जहां ३०० घर हिन्दुओं के और २५ परिवार मुसलामानों के हैं। इस गाँव में दुर्गा-पूजा पर पाबन्दी है, और इसलिए कि मुसलमानों को ये मंजूर नहीं। कुछ वर्ष पहले मुसलमान परिवारों नें जिला-प्रशासन से लिखित शिकायत करी कि दुर्गा-पूजा बुतपरस्ती है , जिससे उनकी भावनायें आहत होती हैं इसलिए इस पर पाबन्दी लगायी जाए। टीएमसी नेताओं के दवाब में स्थानीय प्रशासन तत्काल हरकत में आया और पाबन्दी लगा दी गयी।
दंगाइयों के आज हैसले इतने बुलंद, और वहीं प्रशासन के होसले इतने पस्त कैसे पड़ गए अब ये समझना कठिन नहीं। वहां आज लोगों पर क्या बीत रही है, इसकी थाह लेने के लिए एक घटना पर दृष्टि डाल लेना ही काफी होगा: मामला फाल्टा पुलिस थाना क्षेत्र, जिला दक्षिण २४ परगना का है; जो बांग्लादेश सीमा से ज्यादा दूर नहीं।
इस दंगा प्रभावित क्षेत्र में दौरा करते-करते देवदत्त माजी नाम के एक बीजेपी उम्मीदवार और समाज सेवक का सामना एक महिला, मंजू प्रमाणिक, से होता है। आपबीती सुनाते हुए उसने बताया कि उसका पति सुकांता प्रमाणिक बीजेपी का मंडल अध्यक्ष है। उसको जेल में पुलिस ने इसलिए डाल रखा है क्यूंकि जब जहाँगीर खान नाम के युवा तुरूमूल के पदाधिकारी नें अपने साथी गुंडों को लेकर हमारे मोहल्ले के उपर हमला कर लूटपाट शुरू कर दी, तो मेरे पति नें उसका विरोध किया था। और अब जेल में उन पर तरह-तरह से अत्याचार के बल पर खौफ पैदा कर जहाँगीर खान से पुराने मामलों में समझौता कर लेने के लिए दवाब बनया जा रहा है।
वैसे, ये घटना केवल एक बानगी भर है। जिन्होनें जान बचाकर राज्य के दुसरे इलाकों में – और कुछ ने तो असम, ओड़िसा में – शरण ले रखी है उनके वापस आने की आज एक ही सूरत है और वो है बदले में कीमत की अदायगी। जिसके अनेक रूप शामिल हैं, जैसे – पैसा-वसूली, संपत्ति आदि पुराने मामलों का एक तरफ़ा निपटारा, और यहाँ तक कि अनैतिक चाहतों की पूर्ती। (विस्तृत रिपोर्ट)
मन में अब ये विचार भी आ सकता है कि बंगाल की बात आने पर वहां के जिस विशिष्ट बुद्धिजीवी वर्ग की बात चर्चाओं में अक्सर होती रहती है, इस परिस्थिति में उसकी आवाज़ सुनाई क्यों नहीं पड़ रही। इसको समझने के लिये इतिहास में जाना पड़ेगा।
देखें: भारत में अंग्रेजी-शिक्षा पद्धति तैयार करने की जिम्मेदारी जब मैकाले को मिली तब उसने पूरे भरोसे के साथ ये दावा किया था कि- “जरा सी पश्चिमी-शिक्षा के प्रचार-प्रसार से बंगाल मूर्ती-पूजकों से विहीन हो जायेगा।” और इस आधार पर भारत में अंग्रेजी शिक्षा की नींव सर्वप्रथम १८१३ में पड़ी, और कलकत्ता[कोलकोता] में बिशप कॉलेज और डफ कॉलेज अस्तित्व में आये। अगले ७०-८० वर्षों में इसका प्रभाव क्या पड़ा, इसको लेकर विवेकानंद कहते है- “बच्चा जब भी पढ़ने को [ईसाई मिशन] स्कूल भेजा जाता है, पहली बात वो ये सीखता है कि उसका बाप बेवकूफ है। दूसरी बात ये कि उसका दादा दीवाना है, तीसरी बात ये कि उसके सभी गुरु पाखंडी है और चौथी ये कि उसके सारे के सारे धर्म-ग्रन्थ झूठे और बेकार है।” -[संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर].
आगे चल कर बंगाल से निकलकर ये स्थिति धीरे-धीरे लगभग पूरे देश की हो चुकी थी। पर, देश के शैष भाग के विपरीत, आज़ादी के बाद भी बंगाल में परिवर्तन देखने को इसलिए नहीं मिल सका क्यूंकि लम्बे काल खंड में वहां वामपंथियों का शासन रहा। और, वहां का वही विशिष्ट बुद्धिजीवी वर्ग अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी वामपंथी प्रभाव के कारण से भारतीयता के प्रति असवंदेंशील ही बना रहा। और यही कारण है की आज ममता की टीऍमसी पार्टी का सहारा लेकर एक वर्ग जेहादी एजेंडा चलाकर हिन्दुओं को अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने के लिए मजबूर कर रहा है, और शिक्षित समाज अभी भी प्रतिक्रिया शून्य बैठा है।
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