पिछले दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर दो निर्णय आए और दोनों ही निर्णयों पर प्रतिक्रिया कुछ विरोधाभासी रही। पहला निर्णय था कॉमेडियन मुनव्वर फारिकी को जमानत मिलने का। मुनव्वर फारुकी कहने के लिए कॉमेडियन हैं, परन्तु उनके कॉमेडी एक्ट किस प्रकार की कॉमेडी प्रस्तुत करते हैं, वह एक बार देखकर समझा जा सकता है। कहा गया कि उन्हें नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर टिप्पणी करने के लिए गिरफ्तार किया गया था, और इसे फासीवाद या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कहा गया। परन्तु क्या मामला बस इतना ही था? मामला इससे कहीं बढ़कर था क्योंकि मुनव्वर फारुकी ने माता सीता पर अभद्र टिप्पणी की हैं, राम जी पर की हैं एवं हनुमान जी पर की हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ किसी की धार्मिक भावनाओं को विकृत करना कतई नहीं होता है।
परन्तु सीता त्याग के नाम पर राम जी को अब तक स्त्रियों का सबसे बड़ा शत्रु बताने वाली वामपंथी स्त्रीवादियों ने सीता के इस अपमान पर मुनव्वर फारुकी का विरोध नहीं किया है अब तक, अपितु उन्होंने उसका साथ दिया है। उन्होंने इस स्त्री एवं हिन्दू विरोधी कॉमेडियन को एक मासूम घोषित कर दिया एवं उसे विक्टिमाइज़ेशन का शिकार बना दिया। जब उसे अंतरिम जमानत मिली तो उसका जश्न ऐसे मनाया गया जैसे अत्याचारों से पीड़ित किसी को राहत मिली हो। वह सत्ता में नहीं हैं, परन्तु नैरेटिव सेट करने में उस्ताद वामपंथियों ने उसे एक मासूम कॉमेडियन स्थापित कर दिया है।
उसी के कुछ दिनों के बाद एक और निर्णय आया। वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संभवतया सबसे अच्छे निर्णयों में से एक है, एवं यह निर्णय हिन्दुओं के लिए एक राहत की सांस लेकर आया, परन्तु उस के विषय में चर्चा नहीं हुई, चर्चा हुई भी तो उन्हीं वामपंथियों द्वारा अभिव्यक्ति के हनन के रूप में, जो अभी कुछ दिनों पहले एक विकृत मानसिकता वाले कॉमेडियन को मासूम घोषित कर चुके हैं।
यह निर्णय था, इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अमेजन की अपर्णा पुरोहित की एनटीसिपेटरी बेल को ख़ारिज करने का। उच्च न्यायालय ने अपने इस निर्णय में कई ऐसी बातें कहीं हैं, जिन पर चर्चा होनी चाहिए थी। जैसे तांडव वेब सीरीज के जिन दृश्यों पर आपत्ति थी, उनमें एक दृश्य है जिसमें मंच पर नारद मुनि प्रभु शिव शंकर से कह रहे हैं कि आपका मार्केट डाउन हो गया है, तो आज़ादी आज़ादी जैसे नारे लगाए जाएं, या फिर सभी स्टूडेंट्स देश द्रोही हो गए हैं, ऐसा ट्वीट किया जाए, निश्चित ही उन घटनाओं की ओर संकेत करता है, जो हाल ही में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में हुई थीं एवं इन दृश्यों को मूवी के माध्यम से घृणा के सन्देश फ़ैलाने के रूप में माना जा सकता है।
इसी के साथ एपिसोड 6 में एक संवाद जिसमें प्रोफ़ेसर अपने प्रेमी से कहती हैं कि नीचे जाति के पुरुष एक ऊंची जाति की स्त्री के साथ सम्बन्ध बनाकर इसलिए छोड़ देते हैं जिससे वह अपने साथ हज़ारों सालों से हुई बेइज्ज़ती और अपमान का बदला ले सकें, न्यायालय ने कहा कि यह दृश्य निश्चित ही सामाजिक सामंजस्यता को प्रभावित करने वाला है। न्यायालय ने साथ ही यह भी टिप्पणी की कि जाति से परे हर जाति के युवक और युवतियां आपस में विवाह कर रहे हैं। यह दृश्य अनुसूचित जातियों की छवि को खराब कर रहा है।
इसी के साथ जो सबसे जरूरी हिस्सा है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि पश्चिमी फिल्म निर्माता भी जीसस एवं इस्लामिक पैगम्बर मुहम्मद के खिलाफ फिल्म बनाने से परहेज करते हैं, पर हिन्दू फिल्म निर्माता यह बार बार कर चुके हैं और साथ ही वह अभी भी बेहद भद्दे तरीके से हिन्दू देवी देवताओं के साथ कर रहे हैं। यहाँ पर भी न्यायालय ने मुनव्वर फारुकी का उल्लेख करते हुए कहा है कि “स्थितियां और भी खराब हो रही हैं क्योंकि हमने गुजरात के कॉमेडियन मुनव्वर फारुकी के मामले से देखा कि उसने इंदौर में नए साल के कार्यक्रम में हिन्दू देवी देवताओं के खिलाफ काफी अभद्र टिप्पणियाँ कीं तथा उसे गिरफ्तार करने पर अनावश्यक प्रचार मिला। यह दिखाता है कि फिल्मों से चलकर यह ट्रेंड कॉमेडी शो में चला गया है।” इसके बाद न्यायालय ने जो टिप्पणी की है, उस पर सभी को गौर करना चाहिए। कहा गया है “ऐसे लोग बहुसंख्यक समुदाय के धर्म के धार्मिक चरित्रों को बेहद ही बेशर्म तरीके से अपनी कमाई का जरिया बनाते हैं और देश के उदार तथा सहिष्णु स्वभाव का फायदा लेते हैं।”
न्यायालय ने यह भी संज्ञान लिया कि आज तक न जाने कितनी फ़िल्में बनी हैं जिन्होनें हिन्दू देवी देवताओं के नाम को प्रयोग किया और अश्लील तरीके से प्रस्तुत किया। जिनमें मुख्य हैं, राम तेरी गंगा मैली, सत्यम शिवम सुन्दरम, ओह माई गॉड आदि। इसके अलावा ऐतिहासिक एवं पौराणिक चरित्रों के हनन के प्रयास किए गए जैसे पद्मावती, एवं बहुसंख्यक धर्म के देवताओं के नामों एवं प्रतीकों को पैसे कमाने के लिए छेड़ा गया है। जैसे गोलियों की रासलीला, राम –लीला।। इसके साथ ही न्यायालय ने कहा कि हिंदी फिल्मों में यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है और इस पर यदि रोक नहीं लगाई गयी तो इसके भारतीय सामाजिक, धार्मिक एवं सामुदायिक क्रम पर भयानक परिणाम होंगे।
इसके बाद न्यायालय की टिप्पणी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि वह इन सीरीज के आज की युवा पीढी पर पड़ने वाले दुष्परिणामों को बता रहे हैं। वह कहते हैं कि देश की आज की पीढ़ी, जो देश की समृद्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक विरासत से परिचित नहीं है, वह धीरे धीरे उन्हीं सब झूठ पर विश्वास करने लगती है जैसा आज की फिल्मों या सीरीज में दिखाया जा रहा है तथा यह उस विविधता को समाप्त करेगी जो इस एकीकृत राष्ट्र की विशेषता है। उन्होंने दक्षिण के फिल्म उद्योग की प्रशंसा करते हुए कहा कि दक्षिण का फिल्म उद्योग हिंदी फिल्म उद्योग के जैसे कुकृत्यों में संलग्न नहीं है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय से कई बातें स्पष्ट हुई हैं, सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक तरफ़ा नहीं होती, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के विषय में अभद्र टिप्पणी नहीं की जा सकती। और यह भी नहीं चलेगा कि आप जानबूझकर बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ धार्मिक टिप्पणी करें और बाद में क्षमा मांग लें। यदि आपने गलत नहीं किया तो क्षमा क्यों मांगी और यदि आपने क्षमा माँगी है तो यह सत्य है कि आपने जानते बूझते यह कुकृत्य किया है।
समस्या यहाँ पर इस बात से है कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज के देवी देवताओं पर अभद्र एवं अश्लील टिप्पणी करने वाला मुनव्वर खबरों में छाकर नैरेटिव निर्धारित कर देता है और यहाँ पर यह इतना महत्वपूर्ण निर्णय मीडिया में स्थान नहीं बना पाता? देश के बहुसंख्यक समाज के पक्ष में आने वाला निर्णय उस समय भी मीडिया का भाग बनने में नाकाम हो जाता है, जब केंद्र में हिंदू विचारों वाली सरकार है एवं प्रमुख विपक्ष को भी अपने वोट पाने के लिए मंदिरों का सहारा लेना पड़ रहा है, जालीदार टोपी के स्थान पर भगवा दुपट्टे गले में डालने पड़ रहे हैं।
राजनीति के विमर्श के साथ मीडिया के विमर्श में भी परिवर्तन की आवश्यकता है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह निर्णय यहाँ पढ़ा जा सकता है, एवं डाऊनलोड किया जा सकता है:
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